Tuesday, May 25, 2010

मीडिया का अछूत गांधी

इस गांधी की चर्चा मीडिया में अकसर ना के बराबर होती है और अगर होती भी है तो, सिर्फ और सिर्फ गलत वजहों से। मीडिया और इस गांधी की रिश्ता कुछ अजीब सा है। न तो मीडिया इस गांधी को पसंद करता है न ये गांधी मीडिया को पसंद करता है। इस गांधी के प्रति मीडिया दुराग्रह रखता है। किस कदर इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के पहले परिवार से निकले इस गांधी के भाई राहुल गांधी के श्रीमुख से कुछ भी अच्छा बुरा निकले तो, मीडिया उसे लपक लेता है और अच्छा-बुरा कुछ भी करके चलाता रहता है। जब ये दूसरा गांधी यानी वरुण गांधी कहता है कि उत्तर प्रदेश में 2012 में बीजेपी सत्ता में आएगी और हम सत्ता में आए तो, मायावती की मूर्तियां हटवाकर राम की मूर्तियां लगवाएंगे तो, किसी भी न्यूज चैनल पर ये टिकर यानी नीचे चलने वाली खबर की पट्टी से ज्यादा की जगह नहीं पाती है लेकिन, जब मायावती के खिलाफ देश के पहले परिवार का स्वाभाविक वारिस यानी राहुल गांधी मायावती के खिलाफ कुछ भी बोलता है या कुछ नहीं भी बोलता है तो, भी सभी न्यूज चैनलों पर बड़ी खबर बन जाती है यहां तक कि हेडलाइंस भी होती है।
वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।

और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।

ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।

वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।

वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।

ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।

Thursday, July 10, 2008

मादाम खुश हुईं

अब से कुछ देर पहले सीपीआई नेता एबी बर्धन ने कहा है कि अगर कांग्रेस मनमोहन सिंह अगले प्रधानमंत्री के तौर पर न पेश करे। यानी किसी और को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी दे तो, वो लोकसभा चुनावों के बाद फिर से कांग्रेस के साथ गठजोड़ बना सकती है। दरअसल लेफ्ट ने बर्धन का ये बयान सुनने के बाद सबसे ज्यादा खुश कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही होंगी। क्यों खुद ही पढ़ लीजिए।

Wednesday, July 2, 2008

आज कांग्रेस-सपा के साथ आने का ऐलान हो जाएगा

आज शाम तक समाजवादी पार्टी की ओर अमर सिंह परमाणु समझौते पर यूपीए सरकार को समर्थन का ऐलान कर सकते हैं। ये अलग बात है कि इस सपा में ही दो फाड़ होने की नौबत आ गई है। सपा सांसद कह रहे हैं कि उनके साथ 10 सांसद हैं। लेकिन, लगता यही है कि ये ड्रामा हो सकता है जिससे मुनव्वर मुस्लिम वोटों को बसपा के पक्ष में बहकने से रोक सकें। या फिर मुनव्वर को ये लगने लगा हो कि लोकसभा चुनाव में सपा की बजाए बसपा के टिकट पर आसानी से संसद में पहुंचा जा सकता है।

खैर, जो कुछ भी हो कांग्रेस से दोस्ती के लिए समाजवादी पार्टी अब अपनी राजनीतिक छतरी लेफ्ट को भी दरकिनार के मूड में आ गई है। लेकिन, समाजवादी पार्टी को ये अहसास है कि बीजेप-बीएसपी गठजोड़ के मजबूत होने की स्थिति में यही अकेली छतरी होगी जिसके नीचे आकर सत्ता से दूर रहने के नुकसान थोड़े कम किए जा सकेंगे। और, तथाकथित सांप्रदायिकता के खिलाफ एक गठजोड़ बना सकेंगे। यही वजह है कि अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव लेफ्ट को मनाकर-बताकर कांग्रेस को समर्थन देना चाहते हैं।

दरअसल मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह यूपी की सत्ता से बाहर होने और मायावती के मजबूती से सत्ता हासिल करने के बाद जिस हालात से गुजर रहे हैं। उसमें उन्हें कांग्रेस के साथ जाना फायदे का सौदा लग रहा है। वैसे इसके लिए चार-छे महीने के लिए ही सही सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी भी मिलेगी। मैंने महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन के समय ही ये लिखा था कि किस तरह से यूपी में हाशिए पर पहुंची कांग्रेस और सपा एक दूसरे के नजदीक आ रहे हैं। और, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के लिए मायावती के साथ जाने में फायदा देख रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही है कि भले ही भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को मायावती के साथ से केंद्र में सत्ता चलाने का मौका मिल जाए लेकिन, यूपी में भाजपा का और नुकसान ही होना है।

लेकिन, मुलायम और सोनिया का साथ दोनों के लिए फायदे का सौदा है। यूपी में भी केंद्र की राजनीति के लिए भी। अभी उत्तर प्रदेश में जो हालात हैं वो, कमोबेश विधानसभा चुनाव जैसे ही हैं। बीएसपी के सत्ता में रहने के बावजूद और रोज उजागर होते बसपा नेताओं-विधायकों मंत्रियों के कुकर्मों के बावजूद मायावती को कोई नुकसान होती नहीं दिख रहा। समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर और भाजपा तीसरे नंबर पर है। कांग्रेस का कोई पुरसाहाल नहीं है। और, ये साफ है कि भाजपा और बसपा अंदर गठजोड़ भले ही कर लें साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकते। जबकि, सोनिया और मुलायम के पास ये विकल्प भी है। और, सच्चाई भी यही है कि ये दोनों साथ मिलकर लड़ें तो, लोकसभा की 10-15 सीटों पर समीकरण बदल सकते हैं।

इसकी वजह भी साफ है- अभी भाजपा का परंपरागत ब्राह्मण मतदाता- ये सोचकर कि मायावती का रहना मुलायम के रहने से तो, बेहतर है- बहनजी को वोट करने का मन बना चुका है। जहां ब्राह्मण प्रत्याशी बसपा से हैं वहां तो कोई संदेह ही नहीं है। और, भाजपा के खिलाफ वोट करने वाला एक बड़ा वर्ग भी- ये सोचकर कि सपा को वोट करेंगे तो, रिएक्शन में एंटी वोट भाजपा के साथ एकजुट होंगे और वो मजबूत होगी- बसपा को वोट करने के लिए तैयार है। अब अगर कांग्रेस-सपा एक साथ आते हैं तो, कम से कम एंटी भाजपा सारे वोट इस गठजोड़ के साथ आ सकते हैं। मुस्लिमों का तो, नब्बे परसेंट वोट मायावती का साथ छोड़ सकता है अगर उसे ये तथाकथित सेक्युलर गठजोड़ प्रदेश में मजबूत होता दिखे।

और, जिस तरह से नंदीग्राम के पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट कैडर की अंदरूनी लड़ाई से दोनों राज्यों में वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं। इससे साफ दिख रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में लेफ्ट पर्टियों की सीटें 59 से कम ही होंगी, ज्यादा तो नहीं ही होंगी। कांग्रेस पर भी एंटी इनकंबेंन्सी और महंगाई बुरा असर डाल रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश से ज्यादा सीटें लाने पर सपा-कांग्रेस गठजोड़ यूपीए सरकार के लिए रास्ता आसान कर सकता है। क्योंकि, एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह ये बयान दिया है कि अफजल गुरु, अमरनाथ श्राइन बोर्ड से वापस ली गई जमीन का मुद्दा और आतंकवाद, आने वाले लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनेगा। उससे साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को फायदा मिल रहा है। इसलिए कांग्रेस-सपा गठजोड़ और बाद मे लेफ्ट का बाहर से समर्थन ही सोनिया के लिए बेहतर रास्ता दिख रहा है।

Wednesday, April 16, 2008

लोकसभा सीट के साथ ही भाजपा ने इज्जत भी गंवाई


‘यूपी अब गुजरात बनेगा’
‘आजमगढ़ शुरुआत करेगा’
न तो यूपी गुजरात बनना था और न बना।
आजमगढ़ से शुरुआत की भाजपा की मंशा जमींदोज हो गई। राजनाथ सिंह का चुनाव जीतने के मापदंडों पर खरा प्रत्याशी रमाकांत यादव फिर एक बार बसपा के अकबर अहमद डंपी से हार गया। डंपी ने इससे पहले भी बसपा के ही टिकट पर रमाकांत यादव को हराया था। ये अलग बात है कि 1998 के लोकसभा चुनाव में रमाकांत सपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की हालत किसी गंभीर रोग से ग्रसित मरीज के लिए दी जाने वाली आखिरी दवा के रिएक्शन (उल्टा असर) कर जाने जैसी हो गई है। राजनाथ सिंह ने कैडर, कार्यकर्ताओं को दरकिनारकर चुनाव एक लोकसभा सीट जीतने के लिए रमाकांत जैसे दागी को टिकट दिया लेकिन, फॉर्मूला फ्लॉप हो गया। और, 1998 में डंपी के हाथों रमाकांत की हार भले ही आजमगढ़ में रमाकांत के आतंक से पीड़ित जनता की प्रतिक्रिया थी। लेकिन, 2008 में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े रमाकांत की हार पूरी तरह से भाजपा की साख गंवाने वाली हार है।

1998 में डंपी के चर्चित नारे – आजाद भारत में दो नेशनल लेवल के गुंडे पैदा हुए, एक संजय गांधी-जो अब नहीं हैं और दूसरा अकबर अहमद डंपी, ये रमाकांत यादव तो लोकल लुच्चा है- ने डंपी को लोकसभा में पहुंचा दिया। और, इसके ठीक उलट भाजपा, एक चर्चित नारा - ‘यूपी अब गुजरात बनेगा’ ‘आजमगढ़ शुरुआत करेगा’- और, रमाकांत के हाथों में कमल देने के बावजूद कीचड़ में धंसती ही जा रही है।


रमाकांत को पार्टी टिकट देने का विरोध भाजपा में इतना था कि पार्टी के कद्दावर नेता कल्याण सिंह ने आंख में तकलीफ के बहाने प्रचार से किनारा कर लिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे एक भाजपा नेता ने कहा कि रमाकांत को पार्टी प्रत्याशी बनाकर भाजपा ने प्रदेश में रही-सही साख भी खो दी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले तक पार्टी के ही खिलाफ बिगुल बजाने वाले योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी रमाकांत यादव के लिए खून बहाने को भी तैयार थी, पसीना भी जमकर बहाया लेकिन, सब बेकार गया। आजमगढ़ में हिंदुओं को तो भाजपा नहीं जगा पाई। हां, भाजपा के बेतुके नारे ने मुसलमानों को अकबर अहमद डंपी के लिए एक कर दिया और रमाकांत के आतंक के मारे हिंदुओं को भी डंपी ही बेहतर नजर आया। भाजपा का चुनाव चिन्ह भी उन्हें भरोसा नहीं दिला पाया।

अब पता नहीं कहां रह गया होगा पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का चुनाव जीतने का फॉर्मूला। उन्हें इस बात से भी कतई परहेज नहीं रह गया था कि पार्टी में आने वाला अपराधी है या नहीं।चुनाव प्रचार के समय रमाकांत जैसे माफिया के पक्ष में राजनाथ सिंह पता नहीं कैसे ये तर्क दे रहे थे कि रमाकांत को जघन्य अपराधियों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता।

दरअसल, इससे पहले आजमगढ़ सीट से रमाकांत का रिकॉर्ड देखकर ही राजनाथ सिंह और पार्टी के दूसरे नेता जीत के मापदंडों का हवाला देकर रमाकांत को टिकट देने की वकालत कर ले रहे थे। क्योंकि, इससे पहले 1996, 1999 और 2004 में रमाकांत आजमगढ़ की ही लोकसभा सीट से जीतकर संसद में पहुंच चुके हैं। ये अलग बात है कि 1996 में मुलायम की साइकिल से संसद पहुंचने वाले रमाकांत 2004 में मायावती के साथ हाथी पर सवार हो चुके थे। और, अब 2008 के उपचुनाव में रमाकांत यादव कमल हाथ में लेकर घूमने लगे। 1998 में भी अकबर अहमद डंपी ने उन्हें बसपा के ही टिकट पर हराया था और 2008 में फिर हरा दिया। भाजपा भारतीय राजनीति के कीचड़ में कमल खिलने का दावा करती आ रही थी। अब हाल ये है कि कीचड़ में कमल खिलने के साथ पत्तियों पर भी कीचड़ चारों तरफ से लिपटता जा रहा है। अब सवाल ये है कि कीचड़ के दलदल में धंसती जा रही भाजपा क्या 2009 में होने वाला लोकसभा चुनाव भी इन्हीं मापदंडों पर लड़ेगी।

Monday, April 7, 2008

‘बाबा लोग’ को ‘बड़का लोग’ के साथ मौका मिल ही गया

राहुल के डिस्कवर इंडिया कैंपेन में उन्हें कुछ मिला हो या न मिला हो। विरासत में कांग्रेसी राजनीति के खासमखास परिवारों के दो ‘बाबा लोगों’ को आखिर ‘बड़का लोगों’ की राजनीति में जगह मिल ही गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद को चुनावी साल के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल गई है। चुनावों को ध्यान में रखकर कुछेक और छोटे-छोटे मंत्रिमंडलीय परिवर्तन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मैडम सोनिया के इशारे पर किए लेकिन, खास बदलाव यही दोनों हैं।

सोनिया गांधी, राहुल को ठीक उसी तरह से गद्दी संभालने के लिए तैयार कर रही हैं। जैसे, महाराजा-महारानी युवराज को गद्दी के लायक बनाते थे। राजशाही और लोकतंत्र में फर्क सिर्फ इतना ही है कि तब 14 साल का युवराज भी खास दरबारियों के भरोसे गद्दी संभाल लेता था। अब, लोकतंत्र में कम से कम 25 साल की उम्र तो होनी ही चाहिए। और, दरबारियों से ज्यादा हैसियत हासिल करनी ही होती है। ये दिखाता है कि जो, वो कह रहा है वो किसी भी वरिष्ठ दरबारी से ज्यादा सुना जा रहा है। वो, काम सोनिया ने राहुल के लिए धीरे-धीरे पूरा कर दिया है।

राहुल ने डिस्कवर इंडिया कैंपेन में कहा कि देश की राजनीति में युवाओं को कम मौका मिल रहा है। फिर जब उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस पर भी यही आरोप लगाया तो, लोगों को लगा कि भारतीय राजनीति में गजब का ईमानदार नेता सामने आ रहा है। लेकिन, ये ईमानदारी कम थी और राजनीति ज्यादा। इसका अंदाजा इससे साफ लग जाता है कि मंत्रिमंडल में जो परिवर्तन कए गिए हैं वो, परिवर्तन कहीं से भी चुनाव को बहुत प्रभावित नहीं करेंगे। हां, राहुल के युवाओं को मौका न दिए जाने की बात उठाने पर दो युवाओं को मौका दे दिया गया। पहले राहुल के साथ के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस में खानदानी कांग्रेसियों के घर के बच्चों को एक साथ मौका दिया गया था।

मीडिया में भले ही ये बात कही जा रही हो कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आधार बढ़ाने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद को केंद्रीय राज्य मंत्री बनाया गया है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की राजनीति को थोड़ा भी जानने वाला ये बात अच्छे से जानता है कि जितिन प्रसाद को कितने ब्राह्मण अपना नेता मानते हैं और ग्वालियर से बाहर ज्योतिरादित्य की कितनी ताकत है। कुल मिलाकर राहुल बिना प्रधानमंत्री बने ही मंत्रिमंडल का फैसला करने लगे हैं। तो, कांग्रेस की ओर से अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित करने की जरूरत अब भी है क्या। क्योंकि, त्याग की प्रतिमूर्ति सोनिया गांधी दुबारा विदेशी मूल का मुद्दा तो विरोधियों को देना भी नहीं चाहेंगी। त्यागी सोनिया ने ये भी बता दिया कि राहुल ने मंत्री बनने से इनकार कर दिया है।

Friday, February 15, 2008

महाराष्ट्र के आधे घरों में टॉयलेट तक नहीं है

मराठी माणुस के भले का दावा करने वालों ने एक मराठी माणुस की जान ले ली। और, दूसरा एक मराठी माणुस हत्यारा बन गया। यानी दो मराठी परिवार बरबाद हो गए। लेकिन, अभी भी मराठियों की चिंता करने वालों की सेना का अभियान जारी है। मराठी हितों की चिंता करने वाले सचमुच कितने चिंतित हैं अपने वोट के लिए या मराठी हितों के लिए ये सब जानते हैं। फिर भी महाराष्ट्र के 2000 के सेंसस से इसे समझने में और आसानी होगी। सच्चाई ये है कि मराठियों को बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पा रहीं और ये आंकड़ा सिर्फ मुंबई का नहीं है। जहां गैर मराठियों को मराठियों के संसाधनों पर कब्जा करते प्रचारित किया गया है।

पूरे महाराष्ट्र के आधे से ज्यादा घरों में टॉयलेट तक की सुविधा नहीं है। जब उत्तर भारतीयों की संख्या मुंबई में बहुत कम थी, तब भी देश का अकेला शहर मुंबई ही था जहां, चॉल सिस्टम में बीसों घरों के लोग एक ही टॉयलेट का इस्तेमाल करते थे। मराठी संस्कृति, अस्मिता का ढोल पीटने वालों अब जरा गैर मराठियों को गंदगी में रहने वाले और गंदगी करने वाले बोलने से पहले इन आंकड़ों का ध्यान कर लेना। देश में सबसे ज्यादा शहरीकरण गुजरात के बाद महाराष्ट्र का ही हुआ है। लेकिन, यहां गांवों के लिहाज से 81.8 प्रतिशत और शहरों में 41.9 प्रतिशत घरों को अपना टॉयलेट तक नसीब नहीं है। शहरों की 40 प्रतिशत आबादी ड्रेनेज सिस्टम से जुड़ी नहीं है।

दूसरी सुविधाओं के मामले में भी अगर देखें तो, शहरों में भले ही 70.5 प्रतिशत घरों में टीवी सेट हैं लेकिन, गांव के इससे भी ज्यादा घरों में टीवी ही नहीं है। 35 प्रतिशत घरों मे रेडियो या ट्रांजिस्टर है। 14.1 प्रतिशत घरों में टेलीफोन है। 30.1 प्रतिशत घरों में साइकिल है। 13.2 प्रतिशत घरों में बाइक, स्कूटर या फिर मोपेड है। सिर्फ 3.4 प्रतिशत घरों में ही कारें हैं। और, 36.8 प्रतिशत घरों में इनमें से कोई भी सामान नहीं है। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि मुंबई में चमकती SUV’s में घूमने और मायानगरी की चमकती पार्टियों में शामिल होने वालों को असली मराठी हितों के बारे में अंदाजा भी नहीं होगा।

ऐसा नहीं है कि देश के दूसरे हिस्सों में ऐसा समान बंटवारा है। लेकिन, सच्चाई यही है कि मुंबई जैसी देश की आर्थिक राजधानी होने के बावजूद यहां की सरकारें और यहां के नेता राज्य के दूसरे हिस्सों के विकास का कोई खाका तैयार नहीं कर पा रहे हैं। मुंबई में निश्चित तौर पर जिस तरह से बाहर से लोग आ रहे हैं यहां की भी बुनियादी सुविधें टूट रही हैं। और, इसका कोई न कोई विकल्प भी खोजना पड़ेगा। पर, सवाल ये है कि जब विकसित राज्यों में शुमार महाराष्ट्र की सरकार राज्य के दूसरे हिस्सों में ही ऐसे विकल्प नहीं दे पा रही है और महाराष्ट्र के ही दूसरे हिस्सों से लोग मुंबई भागे चले आ रहे हैं तो, ये उम्मीद कैसे की जा सकती है कि पिछड़े का ठप्पा लगे उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपने अवसर खोजने देश की आर्थिक राजधानी में नहीं आएंगे।

और, ये आंकड़ा ये भी साफ करता है कि मुंबई का विकास किसी मराठी या गैर मराठी की वजह से नहीं हुआ। समुद्र के किनारे बसा होना, आज से सौ साल पहले से ही देश का व्यापारिक केंद्र होना और दुनिया भर में भारत के अकेले आर्थिक शहर के तौर पर पहचान- इन सबकी वजह से मुंबई की शान है, मुंबई की चमक है। अब अगर सचमुच मराठी हितों के रक्षकों को अपना दावा सिद्ध करना है तो, महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों को भी मुंबई जैसा चमकाकर दिखाएं और तब कहें कि पिछड़े राज्यों के लोगों को यहां घुसने नहीं देंगे। क्योंकि, अभी तो महाराष्ट्र के ही दूसरे हिस्से बहुत पिछड़े नजर आ रहे हैं।

Thursday, February 14, 2008

क्षेत्रवाद की राजनीति में मर गया एक मराठी माणुस

राज ठाकरे को जमानत मिल गई। अगर किसी ने बुधवार चार बजे के पहले टेलीविजन बंद कर दिया होगा और किसी वजह से सात बजे तक टीवी नहीं देख पाया होगा तो, उसे लगेगा कि राज को जमानत क्यों लेनी पड़ी। जब पिछले 48 घंटों से राज्य सरकार की पूरी मशीनरी और केंद्र की ओर से भेजी गई अतिरिक्त अर्द्धसैनिक बलों की फौज राज के घर का सुरक्षा घेरा प्रधानमंत्री निवास से भी ज्यादा किए हुए थी और गिरफ्तारी नहीं हो पाई तो, फिर ये जमानत का ड्रामा क्या है।

बुधवार शाम चार से सात बजे के बीच की गिरफ्तारी से लेकर जमानत तक का ये ड्रामा महाराष्ट्र की गंध भरी राजनीति की असली कहानी कह देता है। शुरुआत में राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों के खिलाफ गंदगी करने की कोशिश सिर्फ ठाकरे खानदान के वर्चस्व की लड़ाई के तौर पर देखी जा रही थी। लेकिन, अब ये पूरी तरह साफ हो गया है कि मायानगरी में अब तक बनी किसी भी फिल्म से ज्यादा ड्रामे वाली इस पटकथा को राज्य के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और राज्य के वोटविहीन (शायद रियल लाइफ की बांटो-काटो की राजनीति कुछ वोट भीख में दे दे) नेता राज ठाकरे ने मिलकर तैयार किया है। और, पिक्चर अभी खत्म नहीं हुई है। क्योंकि, वोटों के लिहाज से राज ठाकरे को ज्यादा फायदा नहीं होगा। हां, कांग्रेस-एनसीपी के कमजोर, बेतुके शासन को एक और मौका मिलने में ये मदद करेगा।

ये दोनों नेता कितने दोगले हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज की जमानत से से ठीक पहले तक मुख्यमंत्री एक टीवी चैनल पर ये कह रहे थे कि राज्य में सभी की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी है। और, राज ठाकरे की गिरफ्तारी एकदम जायज है। उस समय विक्रोली कोर्ट में महाराष्ट्र पुलिस राज ठाकरे को 12 दिन की न्यायिक हिरासत में लेने का आधार तक नहीं पेश कर पाई। और, मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के कई हिस्सों खासकर नासिक, औरंगाबाद, पुणे में एमएनएस की गुंडागर्दी जमकर चल रही थी। वैसे राज पहले तो दहाड़ रहे थे कि वो जमानत किसी भी कीमत पर नहीं लेंगे फिर धीरे से भीगी बिल्ली की तरह जमानत लेकर निकल आए।


राज को जमानत देते समय अदालत ने जो दो बातें कहीं जरा उसे भी पढ़ लीजिए।
पहला- ‘शहर में शांति का ख्याल रखें’।
क्या, कानून तोड़ने वाले और देश बांटने की कोशिश करने वाले किसी व्यक्ति को इतनी इज्जत दी जा सकती है
दूसरा- ‘पढ़े-लिखे व्यक्ति की तरह व्यवहार करें’। ये एकदम सही सलाह लगी लेकिन, क्या ये बताने की जरूरत है पढ़े-लिखे हैं इसीलिए वो सारी गंदगी सोच-समझकर फैला रहे हैं।


राज के सिर्फ इस कुतर्क पर उन्हें जमानत मिल गई कि उनके बयानों को पूर्ण परिदृश्य में रखे बिना मीडिया ने उसका गलत इस्तेमाल किया। वैसे ऐसे कुतर्कों के साथ राज पहले भी कानून को ठेंगे पर रखते रहे हैं। लेकिन, पुलिस अदालत को ये क्यों नहीं बता पाई कि पिछले दस दिनों में मुंबई एक गुंडा ‘राज’ की बंधक हो गई थी। जबकि, अदालत में चल रही बहस के समय भी राज के गुंडे महाराष्ट्र में गैरमराठियों के लिए दहशत बढ़ाने की कोशिश छोड़ नहीं रहे थे। अब पुलिस अदालत को क्यों ये नहीं बता पाई कि टैक्सियों के तोड़े जाने, लोगों को सड़कों पर, ट्रेन में, बसों में पीटे जाने की तस्वीरें को अब भला किस पूर्णता की जरूरत है। पुलिस चाहती तो, किसी भी टीवी चैनल से वो तस्वीरें लेकर अदालत से गुंडा ‘राज’ की रिमांड ले सकती थी। कल नासिक से जिस तरह से उत्तर भारतीयों के आपात खिड़की से किसी तरह घुसकर नासिक छोड़कर जाने की तस्वीरें थीं वो, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद की ट्रेन की याद दिला रही थीं।

फिर भी अगर देशमुख की पुलिस राज को हिरासत में नहीं रख पाई तो, इसके पीछे ज्यादा कहानी खोजने की जरूरत है क्या। देशमुख ने वोटविहीन नेता को पिछले दस दिनों से सुर्खियों में रखा हुआ है। टैक्सी वालों को पीटने और टैक्सियां तोड़ने की पहली घटना के बाद अगर उस इलाके के थानेदार को ही प्रशासन ने कार्रवाई की छूट दी होती तो, रोनी सूरत वाले गृहमंत्री शिवराज पाटील और गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के मुर्दा वक्तव्य टीवी पर देखने की जरूरत नहीं होती। राज किसी आम गुंडे की तरह जेल की सलाखों के पीछे होता और मीडिया उसकी जमानत या गिरफ्तारी के ड्रामे पर अपना कैमरा न फोकस करता।

एक थानेदार के हाथों खत्म हो जाने वाली गुंडागर्दी पर कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकारें 48 घंटों तक आपात बैठक करती रही और गुंडा ‘राज’ मराठियों का सबसे बड़ा नेता बनता गया। राज को जमानत मिलने के बाद जो, लोग टीवी चैनल पर एमएनएस समर्थक के तौर पर नाच रहे थे, भांगड़ा कर रहे थे, उनमें से ज्यादातर 18 साल तक के नहीं थे। जो 18 साल के ऊपर के थे वो, ज्यादातर खाली बैठे लोग थे जो, काम नहीं करना चाहते लेकिन, राज की सेना में शामिल होकर रुआब झाड़ना चाहते हैं।

मराठी माणुस के हितों की रक्षा करने के राज ठाकरे के खोखले दावे के साथ शुरू हुआ गुंडा ‘राज’ एक मराठी माणुस की जान ले चुका है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में इंजीनियर 52 साल के अंबादास धारराव की राज ठाकरे के भक्तों के पथराव में मौत हो गई। अबंदास की बीवी के मराठी हितों की रक्षा का क्या हुआ। राज ने अदालत में भी मराठी माणुस के हितों की रक्षा करते रहने की प्रतिबद्धता दोहराई है यानी अभी पिक्चर बाकी है तो, अभी कितनी जानें जाएंगी, फिर वो मराठी माणुस की हों या फिर उत्तर भारतीयों की।