Sunday, December 30, 2007

मायावती की महत्वाकांक्षा, भाजपा के लिए काम की है!

राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की बड़ा बनने की इच्छा बीजेपी के खूब काम आ रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से पटखनी देने वाली मायावती देश के दूसरे राज्यों में बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। जबकि, केंद्र में भले ही मायावती कांग्रेस से बेहतर रिश्ते रखना चाहती हो। राज्यों में बहनजी की बसपा कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर रही है।

गुजरात के बाद हिमाचल की सत्ता भी सीधे-सीधे (पूर्ण बहुमत के साथ) भारतीय जनता पार्टी को मिल गई है। गुजरात में जहां मोदी सत्ता में थे लेकिन, मोदी के विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व का एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग असली वजह रही। वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में थी और उसके कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।

दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।

मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और, बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं।

गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो, वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।

इस साल हुए छे राज्यों के चुनाव में भाजपा को चार राज्यों में सत्ता मिली है। हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में भाजपा ने अकेले सरकार बनाई है जबकि, पंजाब में वो अकाली की साझीदार है। कांग्रेस सिर्फ गोवा की सत्ता हासिल कर पाई और बसपा को उत्तर प्रदेश में पहली बार पांच साल शासन करने का मौका मिला है।

2008 में होने वाले चुनावों को देखें तो, दिल्ली में कांग्रेस की सरकार दो बार से चुनकर आ रही है। सत्ता विरोधी वोट तो कांग्रेस के लिए मुश्किल बनेंगे ही। बसपा भी यहां कांग्रेस के लि मुश्किल खड़ी करेगी। दिल्ली नगर निगम में बसपा के 17 सभासद हैं। मध्य प्रदेश बसपा, भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। शिवराज के नेतृत्व से लोग खुश नहीं हैं और शिवराज सिंह चौहान, मोदी या फिर उमा भारती जैसे अपील वाले नेता भी नहीं हैं। वैसे, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी अगले साल ही होने हैं। और, दोनों ही राज्यों में भाजपा के लिए सरकार बनाना बड़ी चुनौती होगी।

गुजरात चुनावों में भारी जीत और हिमाचल में मिली सत्ता के बाद भले ही लाल कृष्ण आडवाणी और दूसरे भाजपा नेता दहाड़ने लगे हों कि ये दोनों जीत 2009 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी के संकेत हैं। ये इतना आसान भी नहीं दिखता। क्योंकि, पंजाब और उत्तराखंड में मिली जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को मात खानी पड़ गई थी।

Sunday, December 23, 2007

राष्ट्रीय राजनीति में कहां खड़े हैं नरेंद्र मोदी

नरेंद्र मोदी फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए हैं। औपचारिक तौर पर मोदी 27 दिसंबर को शपथ ले लेंगे। अब मीडिया में बैठे लोग अलग-अलग तरीके से मोदी की जीत का विश्लेषण करने बैठ गए हैं। वो, अब बड़े कड़े मन से कांग्रेस को इस बात के लिए दोषी ठहरा रहे हैं कि कांग्रेस मोदी के खिलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ पाई।

खैर, कोई माने या ना माने, गुजरात देश का पहला राज्य बन गया है जहां, विकास के नाम पर चुनाव लड़ा गया और जीता गया। विकास का एजेंडा ऐसा है कि गुजरात के उद्योगपति चिल्लाकर कहने लगते हैं कि कांग्रेस या फिर बीजेपी में खास फर्क नहीं है। फर्क तो नरेंद्र मोदी है। अब सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी विकास का ये एजेंडा लेकर राष्ट्रीय स्तर की राजनीति कर सकते हैं।

मेरी नरेंद्र मोदी से सीधी मुलाकात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी। पहली बार मोदी को सीधे सुनने का मौका भी मिला था। खुटहन विधानसभा में एक पार्क में हुई उस रैली में पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ सुनने के लिए जुटी थी। खुटहन ऐसी विधानसभा है जहां, आज तक कमल नहीं खिल सका है। और, मोदी की जिस दिन वहां सभी उस दिन उसी विधानसभा में उत्तर प्रदेश के दो सबसे कद्दावर नेताओं, मुलायम सिंह यादव और मायावती की रैली थी। ये भीड़ उसके बाद जुटी थी।

मोदी ने भाषण के लिए आने से पहले विधानसभा का समीकरण जाना। और, मोदी के भाषण का कुछ ऐसा अंदाज था कि जनता तब तक नहीं हिली जब तक, मोदी का हेलीकॉप्टर गायब नहीं हो गया। मोदी ने कहा- देश के हृदय प्रदेश को राहु-केतु (मायावती-मुलायम) का ग्रहण लग गया है। मोदी ने फिर गुजरात की तरक्की का अपने मुंह से खूब बखान किया। और, उसके बाद वहां खड़े लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ लिया। मोदी ने कहा- उत्तर प्रदेश के हर गांव-शहर से ढेरों नौजवान हमारे गुजरात में आकर नौकरी कर रहे हैं। लेकिन, मुझे अच्छा तब लगेगा जब किसी दिन कोई गुजराती नौजवान मुझसे आकर कहे कि उत्तर प्रदेश में मुझे अपनी काबिलियत के ज्यादा पैसे मिल रहे हैं। मैं अब गुजरात में नहीं रुके वाला।

साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों के बूते सत्ता का स्वाद चखने वाला मोदी उत्तर प्रदेश के लोगों को गुजरात से ज्यादा तरक्की के सपने दिखा रहे था। मोदी ने फिर भावनात्मक दांव खेला। कहा- हमारे यहां गंगा मैया, जमुना मैया होतीं तो, क्या बात थी। हमारे यहां सूखा पड़ता है पानी की कमी रहती है लेकिन, एक नर्मदा मैया ने हमें इतना कुछ दिया है कि हमारा राज्य समृद्धि में सबसे आगे है।

लेकिन, मोदी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने धीरे से एक जुमला सुनाया कि हमारे कांग्रेसी मुख्यमंत्री मित्र सम्मेलनों में मिलते हैं तो, उनसे मैं पूछता हूं कि सोनिया और राहुल बाबा के अलावा आप लोगों के पास देश को देने-बताने के लिए कुछ है क्या। उन्होंने कहा कि असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं। असम के लोगों को काम नहीं मिल रहा है। बांग्लादेशी लेबर 30 रुपए रोज में ही काम करने को तैयार हो जाते हैं और, उनकी घुसपैठ भी बढ़ती ही जा रही है। मोदी ने बड़े सलीके से घुसपैठ का मुद्दा विकास के साथ जोड़ दिया था।

उत्तर प्रदेश की खुटहन विधानसभा में मोदी का भाषण सुनने वाले गुजरात के विकास से गौरवान्वित होने लगे थे। मोदी ने कहा- मैंने कांग्रेसी मुख्यमंत्री से कहा आपकी थोड़ी सीमा बांग्लादेश से सटी है तो, आप परेशान हैं। गुजरात से पाकिस्तान से लगी है और मुझसे मुशर्रफ तो क्या पूरा पाकिस्तान परेशान है। जाने-अनजाने ही उत्तर प्रदेश के लोग विकास से गौरवान्वित हो रहे थे और पाकिस्तान, बांग्लादेश की घुसपैठ की समस्या उनकी चिंता में शामिल हो चुकी थी।

ये थी मोदी कि कॉरपोरेट पॉलीटिकल पैकिंग। जिसके आगे बड़े से बड़े ब्रांड स्ट्रैटेजी बनाने वालों को भी पानी भरना पड़ जाए। यही पैकिंग थी जो, ‘जीतेगा गुजरात’ नाम से आतंकवाद, अफजल, सोहराबुद्दीन के साथ विकास, गुजराती अस्मिता को एक साथ जोड़ देती है। ये बिका और जमकर बिका।

और, मोदी की इस कॉरपोरेट पैकिंग को और जोरदार बना दिया, मोदी के खिलाफ पहले से ही एजेंडा सेट करके गुजरात का चुनाव कवरेज करने गए पत्रकारों ने। ऐसे ही बड़े पत्रकारों ने मोदी को इतना बड़ा कर दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ये बयान देना पड़ा कि मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी मोदी के डर से की गई है। ज्यादातर बहस इस बात पर हो रही है कि मोदी आडवाणी के लिए खतरा हैं या नहीं। दरअसल इसमें बहस का एक पक्ष छूट जा रहा है कि क्या देश में लाल कृष्ण आडवाणी से बेहतर प्रधानमंत्री पद के लिए कोई दूसरा उम्मीदवार है। जहां तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात है तो, ये जगजाहिर है कि वो कोई ऐसे नेता नहीं हैं जो, लड़कर चुनाव लड़कर देश की सबसे ऊंची गद्दी तक पहुंचे हों। मनमोहन जी को ये भी अच्छे से पता है कि सोनिया की आंख टेढ़ी हुई तो, गद्दी कभी भी सरक सकती है।

मैं भी गुजरात चुनाव के दौरान वहां कुछ दिनों के लिए था। दरअसल गुजरात में मोदी के खिलाफ कोई लड़ ही नहीं रहा था। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे कुछ मीडिया हाउस। कुछ एनजीओ, जिनमें से ज्यादातर तीस्ता सीतलवाड़ एंड कंपनी के जैसे प्रायोजित और सिर्फ टीवी चैनलों पर दिखने की भूख वाले लगते थे या फिर नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से परेशान और फिर मोदी की ओर से परेशान किए गए बीजेपी के ही कुछ बागी।

मोदी जीत गए हैं। सबका उन्होंने आभार जताया। साठ परसेंट गुजरातियों ने वोट डाला। और, उसमें से भी बीजेपी को करीब पचास परसेंट वोट मिले हैं लेकिन, मोदी ने कहा ये साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की जीत है। मोदी ने हंसते हुए कहा कि नकारात्मकता को जनता ने नकार दिया है। गुजरात के साथ मोदी फिर जीत गए हैं। केशुभाई और मनमोहन सिंह की बधाई स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि चुनाव खत्म, चुनावी बातें खत्म। अब मोदी गुजरात के राज्य बनने के पचास साल पूरे होने पर राज्य को स्वर्णिम बनाने में जुटना चाहते हैं।

नरेंद्र मोदी के अलावा बीजेपी में एक और नेता था जो, हिंदुत्व, विकास की कुछ इसी तरह पैकेजिंग कर सकता था। लेकिन, उनकी समस्या ये है कि वो, उमा भारती का भी बीड़ा उठाए रखते हैं। और, उमा भारती को लगता है रामायण, महाभारत की कथा सुनाकर और हर किसी से जोर-जोर से बात करके बीजेपी कार्यकर्ताओं का नेता बना जा सकता है। उमा भारती ने भी दिग्विजय के खिलाफ लड़ाई लड़कर उन्हें सत्ता से बाहर किया। लेकिन, बड़बोली उमा खुद को संभाल नहीं पाईं और खुद मुख्यमंत्री होते हुए भी दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं से लड़ती रहीं। बहाना ये कि दिल्ली में बैठे नेता उनके खिलाफ राजनीति कर रहे हैं।

मोदी कभी भी राज्य के किसी नेता के खिलाफ शिकायत लेकर दिल्ली नहीं गए। राज्य बीजेपी के नाराज दिग्गज नेता दिल्ली का चक्कर लगाते रहे, मोदी के खिलाफ लड़ते रहे और मोदी गुजरातियों के लिए लड़ाई लड़ने की बात गुजरातियों तक पहुंचाने में सफल हो गए। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी बीजेपी की दूसरी पांत के सभी नेताओं से बड़े हो गए हैं। लेकिन, आडवाणी के कद के बराबर पहुंचने के लिए अभी भी मोदी को बहुत कुछ करना होगा।

मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी जैसे आगे की रणनीति बनाने वाले नेता के लिए पांच-सात साल का इंतजार करना ज्यादा मुश्किल होगा। लाल कृष्ण आडवाणी 80 साल के हो गए हैं। और, मोदी सिर्फ 57 साल के हैं। बूढ़े नेताओं पर ही हमेशा भरोसा करने वाले भारतीय गणतंत्र के लिए मोदी जवान नेताओं में शामिल हैं। और, आडवाणी बीजेपी को सत्ता में लौटा पाएं या नहीं, दोनों ही स्थितियों में 2014 में आडवाणी रेस से अटल बिहारी की ही तरह बाहर हो जाएंगे। साफ है 2014 के लिए बीजेपी के सबसे बड़े नेता की मोदी की दावेदारी अभी से पक्की हो गई है।

Thursday, December 13, 2007

लाल कृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मतलब

भाजपा ने आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी को अपना नेता घोषित कर ही दिया। लोकसभा चुनाव हारने के बाद और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबियत खराब होने के बाद ही ये ऐलान हो जाना चाहे था। लेकिन, कुछ पार्टी की आतंरिक खराब हालत और कुछ अटल बिहारी वाजपेयी की आजीवन भाजपा का सबसे बड़ा नेता बने रहने की चाहत। इन दोनों बातों ने मिलकर आडवाणी की ताजपोशी पर बार-बार ब्रेक लगाया। उस पर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी के बयान की वजह से संघ के बड़े नेताओं की नाराजगी कुछ बची रह गई थी।

फिर जरूरत (वजह) क्या थी बिना किसी मौके के आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की। अभी लोकसभा के चुनाव तो हो नहीं रहे थे। गुजरात के चुनाव चल रहे हैं और गुजरात में जिस तरह से मोदी की माया में ही पूरे राज्य में बीजेपी का चुनाव प्रचार चल रहा है। सहज ही लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी मोदी के बढ़ते प्रभाव से जुड़ जाता है। और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे बड़ी ही आसानी से जोड़ दिया कि मोदी केंद्र की राजनीति में प्रभावी न हो पाएं इसके लिए गुजरात चुनाव के परिणाम आने से पहले ही आडवाणी की उम्मीदवार पक्की कर दी गई। लेकिन, अगर आडवाणी की उम्मीदवारी के ऐलान के समय पार्टी कार्यालय के दृश्य याद करें तो, आसानी से समझ में आ जाता है कि मोदी कहीं से भी नंबर एक की कुर्सी के लिए आडवाणी को चुनौती देने की हालत में नहीं थे।

दरअसल लाल कृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पक्की करने के पीछे असली खेल भाजपा में नंबर दो की लड़ाई में भिड़े नेताओं ने किया। मुस्कुराते हुए राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र पढ़कर सुनाया। जसवंत सिंह हमेशा की ही तरह आडवाणी के पीछे खड़े थे। अरुण जेटली काले डिजाइनर कुर्ते में चमकते चेहरे के साथ नजर आ रहे थे। लेकिन, इस पूरे आयोजन में सबसे असहज और खुद को सहज बनाने की कोशिश में दिख रहे थे मुरली मनोहर जोशी। राजनाथ के ऐलान के बाद जोशी ने आडवाणी को मिठाई खिलाई, गुलदस्ता भी दिया।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को भीतर से जानने वाले ये अच्छी तरह जानते हैं कि नंबर दो की कुर्सी को छूने भर के लिए मुरली मनोहर जोशी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा में एक चर्चित किस्से से आडवाणी-जोशी के बीच चल रहे शीत युद्ध को आसानी से समझा जा सकता है। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार जोशी के संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से कुछ नाराज लोग आडवाणी के पास मुरली मनोहर की शिकायत करने पहुंचे तो, आडवाणी ने उन्हें जवाब दिया कि इलाहाबाद भाजपा के नक्शे में शामिल नहीं है। ये बात कितनी सही है ये तो पता नहीं। लेकिन, दोनों नेताओं के बीच रस्साकशी लगातार चलती रही थी। आडवाणी स्वाभाविक तौर पर अटल बिहारी के बाद कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य नेता थे तो, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के सर संघचालक रहते जोशी ने संघ के दबाव में नंबर दो का दावा बार-बार पेश करने की कोशिश की।

जोशी जब अध्यक्ष बने तो, उसके बाद के चुनावों में एक पोस्टर पूरे देश भर में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से छपा हुआ पहुंचा था। इसमें बीच में अटल बिहारी की थोड़ी बड़ी फोटो के अगल-बगल जोशी और आडवाणी की एक बराबर की फोटो लगी थी और नारा भारत मां की तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर। अब तो ये नारा भाजपा कार्यकर्ताओं को याद भी नहीं होगा।

खैर, आडवाणी ने पूरे देश में अपने तैयार किए कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल बिछाया कि दूसरे सभी नेता गायब से हो गए। उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सिर्फ आडवाणी के कार्यकर्ता ही पार्टी में अच्छे नेता के तौर पर स्वीकार्य दिखने लगे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, दिल्ली में मदन लाल खुराना, विजय गोयल, वी के मल्होत्रा, बिहार में सुशील मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा, राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत, महाराष्ट्र में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे, उत्तरांचल में भगत सिंह कोश्यारी, कर्नाटक में अनंत कुमार, गुजरात में केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा और नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में गोविंदाचार्य, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे नेता थे जो, देश भर में भाजपा की पहचान थे। और, इन सभी नेताओं की निष्ठा कमोबेश आडवाणी के प्रति ही मानी जाती थी।

कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं की तनी लंबी फौज होने के बाद आडवाणी कभी भी ‘मास अपील’ (इस अपील ने भी भारतीय राजनीति में बहुत भला-बुरा किया है) का नेता बनने में वाजपेयी को पीछे नहीं छोड़ पाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद आडवाणी का ग्राफ बहुत तेजी से ऊपर गया। लेकिन, इसके साथ ही देश में हिंदूत्व के उभार के साथ एक आक्रामक तेवर वाले नेताओं की भी फौज खड़ी हो गई। साथ ही आडवाणी के ही खेमे के नेताओं में आपस में ठन गई। बीच बचाव करते-करते माहौल बिगड़ चुका था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे जनाधार वाले नेता कल्याण सिंह ने पार्टी से किनारा कर लिया। गोविंदाचार्य को अध्ययन अवकाश पर जाना पड़ा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह से दस साल बाद सत्ता छीनने वाली तेज तर्रार नेता उमा भारती मुख्यमंत्री तो बनीं लेकिन, जल्द ही उनके तेवर पार्टी के लिए मुसीबत बन गए। मदन लाल खुराना आडवाणी को ही पार्टी में होने वाले सारे गलत कामों के लिए दोषी ठहराने लगे। प्रमोद महाजन का दुखद निधन हो गया जो, भाजपा के साथ देश की राजनीति के लिए भी एक बड़ा झटका था। साहिब सिंह वर्मा का सड़क हादसे में निधन हो गया। इस बीच ही आडवाणी को मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नजर आने लगे। और, आडवाणी संघ सहित भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के भी निशाने पर आ गए।

राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आडवाणी ने खुद को पार्टी की सक्रिय भूमिका से अलग कर लिया। और, सच्चाई ये थी कि उनके अपने खड़े किए नेता अब प्रदेशों में या फिर देश की राजनीति में अब उनके साथ थे ही नहीं। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में उत्तरांचल और पंजाब में भाजपा सत्ता में आई लेकिन, उत्तर प्रदेश में मिली जबरदस्त पटखनी ने पूरे देश में भाजपा का माहौल खराब कर दिया। संघ, विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी ने रहा सहा काम भी बिगाड़ दिया।

कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी जो, खुद को एक परिवार की तरह पेश करती है। एक ऐसा परिवार बनकर रह गई जिसमें घर का हर सदस्य अपने हिसाब से चलना चाह रहा था और घर के मुखिया, दूसरे सदस्यों को कुछ भी कहने-सुनने लायक नहीं बचे थे। संघ के बड़े नेता मोहन भागवत फिर से इस कोशिश में जुट गए कि किसी तरह भाजपा को उसका खोया आधार वापस मिल सके। भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही आडवाणी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था लेकिन, अटल बिहारी बीच में ही बोल पड़े कि वो फिर लौट रहे हैं।

आडवाणी भी ये नहीं चाहते थे कि आज की तारीख में देश के सबसे स्वीकार्य नेता की असहमति के साथ वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनें। सारी मुहिम फिर स शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस तरह से भाजपा का संगठन जिस तेजी से खत्म हुआ है उसमें ये जरूरत महसूस होने लगी कि पार्टी को किसी एक नेता के पीछे चलना ही होगा। गुजरात में मोदी ने जिस तरह से संगठन के तंत्र को तहस-नहस किया है। और, अपना खुद का तंत्र बनाकर केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा, सुरेश मेहता और दूसरे भाजपा के दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया है। उससे भी पार्टी और संघ को आडवाणी को नेता बनाने की जरूरत महसूस हुई।

संघ ने आडवाणी की उम्मीदवारी पक्की करने से पहले आडवाणी को मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को साथ लेकर चलने का पक्का वादा ले लिया। गुजरात में मोदी के प्रकोप से डरे भाजपा के दूसरी पांत के नेता भी आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का निर्विवाद उम्मीदवार मानने के लिए राजी हो गए। नरेंद्र मोदी तो कभी भी इस हालत में नहीं रहे कि दिल्ली की राजनीति में वो आडवाणी के कद के आसपास भी फटकते। वैसे भी गुजरात के बाहर मोदी का साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का फॉर्मूला तो काम करने से रहा। लेकिन, आडवाणी के लिए राह बहुत मुश्किल है। गोविंदाचार्य और उमा भारती जैसे कार्यकर्ताओं के प्रिय नेता पार्टी में आने जरूरी हैं। कल्याण सिंह में अब वो तेवर नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश में दूसरा कोई ऐसा नेता बन नहीं पाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ तालमेल बिठाना मुंडे के लिए मुश्किल हो रहा है। और, अब शायद ही आडवाणी में इतनी ताकत बची होगी कि वो फिर से सफल रथयात्री बन सकें जो, अपनी मंजिल तक पहुंच सके। लेकिन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अजब-गजब बयान से इतना तो साफ है कि भाजपा का तीर निशाने पर लगा है।

Tuesday, November 27, 2007

देश भर में फैलने की तैयारी में उत्तर प्रदेश की ‘माया’

मायावती अब दिल्ली पर अपना कब्जा मजबूत करना चाहती हैं। मायावती इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के लिए सत्ता पाने में तुरुप के इक्के जैसा चलने वाले सतीश चंद्र मिश्रा अपने यूपी फॉर्मूले का इस्तेमाल देश के दूसरे राज्यों में भी करना चाहते हैं। जिस तरह की रणनीति सतीश मिश्रा तैयार कर रहे हैं उससे ये साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव में कई राज्यों में स्थापित पार्टियों की हाथी की दहाड़ सुनाई देगी।

कार्यकार्ता और वोटबैंक के लिहाज से उर्वर महाराष्ट्र में मायावती ने 25 नवंबर को एक बड़ी रैली कर दी है। महाराष्ट्र मायावती की योजना में सबसे ऊपर है। देश की राजधानी दिल्ली भी मायावती की योजना में ठीक से फिट बैठ रही है। कांग्रेस और बीजेपी के लिए चिंता की बात ये है कि पिछले नगर निगम चुनावों में दिल्ली में बसपा के 17 सभासद चुनकर टाउनहॉल पहुंच गए हैं। दिल्ली में दलित वोट 19 प्रतिशत से कुछ ज्यादा हैं। और, उत्तर प्रदेश से सटे होने की वजह से यहां के बदलाव की धमक वहां खूब सुनाई दे रही है।

बसपा के संस्थापक कांशीराम की जन्मभूमि पंजाब मायावती के लिए अच्छी संभावना वाला राज्य बन सकता है। मायावती ने महाराष्ट्र से पहले यहां भी एक सफल रैली की। 1984 में जब देश भर में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की बयार बह रही थी तो, बसपा पहली बार संसद में पहुंची थी। पंजाब ऐसा राज्य है जहां देश की सबसे ज्यादा दलित आबादी (28.31 प्रतिशत) रहती है।

पंजाब के बाद देश में सबसे ज्यादा दलित (25.34 प्रतिशत) हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। यही वजह है कि हिमाचल में बसपा ने सभी 68 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। अब इसे मायावती की अति ही कहेंगे कि मायावती ने कांगड़ा में एक विशाल रैली में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी तय कर दिया। इस राज्य में अब तक मायावती को कोई बड़ी सफलता भले न मिली हो। लेकिन, विधानसभा चुनावों में तैयार जमीन लोकसभा चुनावों में मदद दे सकती है।

दिल्ली से ही सटा हरियाणा एक और राज्य है जिस पर बहनजी की नजर है। 19.75 प्रतिशत दलितों का होना भी मायावती को बल देता है। इस राज्य में 1998 में बसपा को एक लोकसभा सीट भी मिल चुकी है। हरियाणा में भी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की बड़ी संख्या है। खासकर फरीदाबाद, सोनीपत और पानीपत में।

उत्तर प्रदेश से सटे मध्य प्रदेश में तो मायावती अच्छी स्थिति के बाद पार्टी के कद्दावर नेता फूल सिंह बरैया के पार्टी छोड़ने से फिर शून्य पर पहुंच गई है। लेकिन, 15 प्रतिशत के करीब दलितों का वोटबैंक किसी कांग्रेस-बीजेपी के अलावा किसी एक दलित नेता का विकल्प मिलने पर फिर से जिंदा हो सकता है। मध्य प्रदेश में बसपा को 1996 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें (8.7 प्रतिशत) मिली थीं। 1998 में तो 11 विधायक बसपा के थे। फिलहाल मध्य प्रदेश में मायावती को बसपा का झंडा उठाने के लिए कोई दमदार नेता नहीं मिल रहा है। मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में भी मायावती अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रही हैं।

इसके अलावा दक्षिण भारत में तमिलनाडु है जो, देश के राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका सकता है। ये अकेला राज्य है जहां मायावती को सर्वजन हिताय का नारा ओढ़ने (उत्तर प्रदेश के फॉर्मूले को इस्तेमाल करने) की जरूरत नहीं है। ये वो राज्य है जो, स्वाभाविक तौर पर दलित आंदोलन की जमीन है। पेरियार ने इसी जमीन पर ब्राह्मणवाद (सतीश चंद्र मिश्रा सुन रहे हैं ना) के खिलाफ प्रभावी आंदोलन खड़ा किया था। लेकिन, मायावती की मुश्किल इस राज्य में ये है कि 19 प्रतिशत से ज्यादा का दलित वोट अब तक करुणानिधि को अंधभाव से नेता मानता रहा हैं। और, उत्तर भारत से एकदम अलग शैली की राजनीति भी मायावती की फजीहत करा सकती है। लेकिन, मायावती तैयार हैं। बसपा का पहला राज्य कार्यालय चेन्नई में खुल चुका है। जिला स्तर पर भी समितियां बनाई जा रही हैं। 30 दिसंबर को चेन्नई में रैली कर मायावती भारत के दक्षिण दुर्ग में प्रवेश करने की पूरी कोशिश करेंगी।

मायावती जिस तरह से बदली हैं। उसे देखकर लगता है कि मायावती भारतीय राजनीति में बड़े और लंबी रेस के खिलाड़ी की तरह मजबूत हो रही हैं। लेकिन, मायावती की राजनीति की नींव ही जिस जातिगत समीकरण के आधार पर बनी है उससे, कभी-कभी संदेह होता है। साथ ही ये भी कि बसपा अकेली ऐसी पार्टी है जिसकी विदेश, आर्थिक, कूटनीतिक और रक्षा मसलों पर अब तक कोई राय ही नहीं है। उद्योगपति अभी भी मैडम मायावती से मिलने में हिचकते हैं। ये कुछ ऐसी कमियां हैं जो, मायावती को देश का नेता बनने से रोक सकती हैं।

Monday, November 26, 2007

महाराष्ट्र में ‘माया’ फैल रही है

हाथी की दहाड़ अब उत्तर प्रदेश के बाहर भी सुनाई देने लगी है। लोकसभा चुनाव के लिए मायावती पूरी तरह तैयार नजर आ रही हैं। उनके प्रमुख सिपहसालार सतीश चंद्र मिश्रा लोकसभा चुनाव के लिए 7-8 राज्यों में हाथी को दौड़ाने की रणनीति बनाने में लग गए हैं। मुंबई के छत्रपति शवाजी पार्क में हुई रैली उसी योजना का एक रिहर्सल थी। मायावती को भले ही महाराष्ट्र के नेता ये कहकर नकार रहे हों कि ये उत्तर प्रदेश नहीं लेकिन, मायावती की रैली में उमड़ी भीड़ ये साफ मान रही है कि दलितों को एक राष्ट्रीय नेता मिल गया है। और, ये दलित नेता ऐसी है जिसकी रणनीति में ब्राह्मण और पिछड़ी जातियों में दबा कुचला तबका सत्ता की सीढ़ी की तरह काम करने को तैयार दिख रहा है।

मायावती जिन राज्यों में बसपा का समीकरण काम करते देख रही हैं उनमें महाराष्ट्र सबसे ऊपर है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र में हुई पहली बड़ी रैली ने साफ कर दिया है कि रामदास अठावले को अब अपना ठिकाना बचाने के लिए कुछ और जुगत करनी पड़ेगी। RPI के ज्यादातर कार्यकर्ता मानते हैं कि अठावले दलितों का सम्मान बचाने में कामयाब नहीं रहे हैं। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की कर्मभूमि होने की वजह से मायावती के लिए यहां दलितों को अपने पाले में खींचने में ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। राज्य के 35 जिलों में बसपा की जिला समितियां काम करने लगी हैं। दलितों की 11 प्रतिशत आबादी मायावती की राह आसान कर रही है। महाराष्ट्र विधानसभा में नीले झंडे का प्रवेश होता साफ दिख रहा है।

मायावती अब एक परिपक्व राजनेता की तरह बोलती हैं। शिवाजी पार्क में उन्होंने किसी पार्टी, जाति के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। दलितों को वो समझा रही थीं कि दूसरी जातियों को अपने साथ लो और सत्ता का सुख भोगो। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का गारंटी कार्ड सतीश मिश्रा यहां भी मैडम के बगल में ही था। मायावती सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा दे रही थीं।

मायावती ने कहा- झुग्गियां नहीं चलेंगी लेकिन, अगर उनकी सरकार आई तो, बिना घर दिए किसी की झुग्गी नहीं टूटेगी। विदर्भ से मायावती की रैली में अच्छी भीड़ आई थी। किसानों की आत्महत्या पर उन्होंने राज्य सरकार को लताड़ा। कहा- मेरे राज्य में कोई किसान आत्महत्या नहीं करता।

मायावती सबसे पहले मुंबई में पैठ जमाना चाहती हैं। उन्हें पता है कि यहां से पूरे राज्य में संदेश जाता है। मायावती जानती हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके जादू का सबसे ज्यादा अंदाजा है। इसलिए वो उत्तर प्रदेश से आए करीब 25 लाख लोगों को सबसे पहले पकड़ना चाहती हैं। यही वो वोटबैंक है जिसने पिछले चुनाव में शिवसेना-भाजपा से किनारा करके कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता में ला दिया। मुंबई में हिंदी भाषी जनता करीब 20 विधानसभा सीटों पर किसी को भी जितान-हराने की स्थिति में है। जाति के लिहाज से ब्राह्मण-दलित-मल्लाह-पासी-वाल्मीकि और मुस्लिम मायावती को आसानी से पकड़ में आते दिख रहे हैं।

अब अगर मायावती का ये फॉर्मूला काम करता है तो, रामदास अठावले की RPI गायब हो जाएगी। और, सबसे बड़ी मुश्किल में फंसेगा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में कांग्रेस के साथ बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं साथ ही दलित-मसलमानों का भी एक बड़ा तबका कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। एनसीपी की OBC जातियों में अच्छी घुसपैठ है। साफ है, हाथी महाराष्ट्र में घुस चुका है लेकिन, ये जंगली हाथी नहीं है जो, पागल होकर किसी भी रास्ते पर जाकर उसे उजाड़ दे। ये मायावती के नए सामाजिक समीकरण को समझने वाले गणेशजी के प्रतीक हैं। सब इनकी पूजा कर रहे हैं। अब ये देखना है कि मायावती के आदर्श डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की दीक्षाभूमि में हाथी का कैसा स्वागत होता है।

Tuesday, November 20, 2007

नंदीग्राम में वामपंथियों का नंगा नाच जारी है

गुजरात दंगों जैसा ही है नंदीग्राम का नरसंहार। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के चेयरमैन जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने ये बात कही है। राजेंद्र बाबू कह रहे हैं कि जिस तरह से नंदीग्राम में अल्पसंख्यकों पर राज्य प्रायोजित अत्याचार हो रहा है वो, किसी भी तरह से गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगों से कम नहीं है। लेकिन, मुझे लगता है कि गुजरात दंगों से भी ज्यादा जघन्य कृत्य नंदीग्राम में हुआ है। नरेंद्र मोदी में भी कभी ये साहस नहीं हुआ कि वो उसे सही ठहराते लेकिन, बौराए बुद्धदेव तो इसे सही भी ठहरा रहे हैं।

दरअसल नंदीग्राम में स्थिति उससे भी ज्यादा खराब है जितनी राजेंद्र बाबू कह रहे हैं। लेफ्ट के गुडों का नंगा नाच अभी भी खुलेआम चल रहा है। बंगाल की बुद्धदेव सरकार अब सीआरपीएफ को काम नहीं करने दे रही है। सीआरपीएफ के देरी से आने का रोना रोने वाले बुद्धदेव के बंगाल के डीजीपी अनूप भूषण वोहरा ने सीआरपीएफ के डीआईजी को कहा है कि वो वही सुनें जो, राज्य पुलिस का स्थानीय एसपी (ईस्ट मिदनापुर) एस एस पांडा कह रहा हो। यानी केंद्र सरकार की ओर से राज्य में कानून व्यवस्था बनाने के लिए भेजी गई सीआरपीएफ पूरी तरह से राज्य पुलिस के इशारे पर चलेगी।

ये वही राज्य पुलिस है जो, लेफ्ट कैडर के इशारे के बिना सांस भी नहीं लेती। सीपीएम कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर नंदीग्राम के निरीह किसानों की हत्या करने वाली पुलिस अब जो कहेगी वही सीआरपीएफ के जवानों को करना होगा। सीआरपीएफ के डीआईजी आलोक राज ने राज्य पुलिस से नंदीग्राम और आसपास के इलाके के अपराधियों की एक सूची मांगी थी अब तक सीआरपीएफ को वो सूची नहीं दी गई। आलोक राज ने कहा पुलिस का इतना गंदा रवैया उन्होंने अपने अब तक के कार्यकाल में नहीं देखा है।

सीआरपीएफ के 5 बेस कैंपों को हटाकर दूसरी जगह भेजा जा रहा है। ये वही बेस कैंप हैं जिन्हें बनाने के लिए सीआरपीएफ को लेफ्ट के अत्याधुनिक हथियारों, बमों से लैस गुंडों से छीनने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था। इतना कुछ होने के बावजूद सीपीएम महासचिव की बेशर्म बीवी और सीपीएम पोलित ब्यूरो की पहली महिला सदस्य बृंदा करात टीवी चैनल पर नंदीग्राम के मसले पर इंटरव्यू के दौरान नंदीग्राम में महिलाओं के साथ हुए बलात्कार की तो चर्चा भी नहीं करना चाहतीं। और, वो इसी इंटरव्यू के दौरान बेशर्मी से हंसती भी दिख जाती है।

वहीं एक दूसरे चैनल पर सीपीआई नेता ए बी वर्धन नंदीग्राम को गुजरात से भी गंदा बताने पर भड़क जाते हैं। इन बेशर्मों को ये नहीं दिख रहा है कि नंदीग्राम के एक स्कूल में 1,200 से भी ज्यादा किसान शरण लिए हुए हैं। ये लोग भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के सदस्य हैं। अब स्कूल का हेडमास्टर सीपीएम के दबाव में उन्हें स्कूल खाली करने को कह रहा है। कमेटी के 38 से ज्यादा सदस्य अभी भी लापता हैं। आशंका हैं कि गांव में कब्जे के दौरान सीपीएम कैडर ने इन लोगों की हत्याकर उनकी लाश कहीं निपटा दी है।

Thursday, November 15, 2007

दो बूढ़े वामपंथियों के अहं की लड़ाई में बरबाद हो रहा है बंगाल

रिजवानुरहमान की मौत के बाद पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का बयान- इस मामले में राज्य सरकार ने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया।

नंदीग्राम और सिंगूर मामले पर राज्य सरकार सलीके से लोगों को समझा नहीं पाई- ज्योति बसु।

पुराने वामपंथी लकीर के फकीर हैं। वो, समय के साथ खुद को बदल नहीं पा रहे हैं- बुद्धदेव भट्टाचार्य

बंगाल के नौजवानों को रोजगार की जरूरत है और वो बिना पूंजी के संभव नहीं। पूंजी के लिए पूंजीवादियों का सहारा लेना ही होगा। ये समय की जरूरत है- बुद्धदेव भट्टाचार्य


पिछले कुछ महीने में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बीच हुए अघोषित शीत युद्ध की ये कुछ बानगियां हैं। कैडर के दबाव और स्वास्थ्य की मजबूरियों ने ज्योति बसु पर बुद्धदेव को कुर्सी देने का दबाव तो बना दिया। लेकिन, ये बूढ़ा वामपंथी अभी भी बंगाल पर अपना दखल कम नहीं होने देना चाहता। और, बंगाल की राजनीति को नजदीक से समझने वालों की मानें तो, इन दो बूढ़े वामपंथियों के अहम की लड़ाई में बंगाल बरबाद होता जा रहा है।

ज्योति बसु ने हर उस नाजुक मौके पर बुद्धदेव के हर फैसले को गलत ठहराने की कोशिश की। जब बुद्धदेव को बचाव की जरूरत थी। इसी रस्साकशी का परिणाम था कि दो दशकों ज्योति बसु के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली ममता सिंगूर के मुद्दे पर ज्योति बसु के घर चाय-नाश्ता मंजूर कर लेती हैं। लेकिन, बुद्धदेव से मिलने को भी तैयार नहीं होती हैं।

बंगाल में सीपीएम कैडर के खिलाफ सीपीएम का ही कैडर खड़ा है। इस बात में तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता कि SEZ और जमीन के बहाने लड़ाई के जो तरीके इस्तेमाल हो रहे हैं वो, ताकत राज्य में सीपीएम कैडर के अलावा किसी और के पास नहीं है। बुद्धदेव हिंसा में माओवादियों का हाथ होने की बात कह रहे थे। लेकिन, रिपोर्ट साफ बताती है कि माओवादी कहीं नहीं हैं। माओवादी तरीका जरूर अपनाया जा रहा है।

कोलकाता में ये चर्चा आम है कि सबसे ज्यादा हिंसा बुद्धदेव का विरोधी खेमा ही कर रहा है। अब ये बताने की जरूरत तो नहीं है कि मुख्यमंत्री के अलावा राज्य में दूसरे किस वामपंथी नेता को कैडर का अंधा भरोसा हासिल है। दोनों बूढ़े वामपंथियों की लड़ाई में बंगाल बरबाद होता जा रहा है। और, अब लेफ्ट नेताओं को भी लगने लगा है कि इस लड़ाई में दुनिया के अकेली सबसे ज्यादा समय तक चलने वाली लोकतांत्रिक सरकार इतिहास बन सकती है। यही वजह है कि करात इस बार खुलकर बुद्धदेव के साथ खड़े हो गए। लेकिन, कुल मिलाकर बरबादी तो बंगाल की ही हो रही है। बंगाल के लोग अब तो जाग जाओ।

बौराए बुद्धदेव से कौन बचाएगा बंगाल को

नंदीग्राम में हालात इतने खराब हो गए हैं कि लोगों को अपनी जान बचाने के लिए राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ रही है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि सरकारी स्कूलों में चल रहे इन राहत शिविरों में ज्यादातर वो मुसलमान हैं जो, अब तक सीपीएम का वोटबैंक माने जाते रहे हैं। महीने भर से करीब 5,000 से ज्यादा लोग अपने घरों को छोड़कर राहत शिविरों में डरे सहमे पड़े हुए हैं।

5-7 साल के बच्चों को सीपीएम कार्यकर्ता उनकी रैलियों में शामिल न होने पर पीट रहे हैं। 7 साल की अमीना खातून को 20 दिन पहले उस समय घर छोड़ना पड़ा जब उसके गांव पर सीपीएम कैडर ने गोली, बमों के साथ हमला कर दिया। इस गांव में तृणमूल कांग्रेस समर्थित भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी का दबदबा था। इसे हटाने के लिए सीपीएम कैडर ने गांव को बरबाद कर दिया। लोग जान बचाकर राहत शिविरों में भाग गए।

बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और प्रकाश करात तो बेशर्मी की सारी हदें पार कर गए हैं। वो कह रहे हैं सीपीएम कार्यकर्ताओं को उनके घर नहीं जाने दिया जा रहा था। इसलिए सीपीएम कैडर को हथियार उठाना पड़ा। बुद्धदेव इतने पर ही नहीं माने। वो कह रहे हैं कि यहां हुई हिंसा के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है। केंद्र से बार-बार सीआरपीएफ मांगने के बाद भी समय से सुरक्षा बल के जवान नहीं पहुंचे। इसीलिए नंदीग्राम में इतनी हिंसा हुई।

बुद्धदेव को शर्म नहीं आती जब पूरा देश ये देख रहा है कि नंदीग्राम और आसपास के गांवों में सीआरपीएफ के जवानों को हथियारबंद सीपीएम कैडर और बंगाल की पुलिस घुसने ही नहीं दे रही है। और, अगर बुद्धदेव के बयान पर भरोसा करें तो, क्या वो ये मान रहे हैं कि बंगाल में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। फिर ऐसी सरकार के बने रहने का क्या तुक है। चुनी हुई राज्य सरकारों के तख्तापलट के लिए छोटी-छोटी बातों पर राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल करने वाली कांग्रेसी सरकार क्यों कान में तेल डालकर बैठी हुई है।

साफ है कांग्रेस और लेफ्ट के बीच तू मेरी गलती को छिपा मैं तेरी गलती को अच्छाई में बदलता हूं, वाला फॉर्मूला चल रहा है। यानी दलालों की सरकार हमारे ऊपर राज कर रही है।

Tuesday, November 13, 2007

कर्नाटक में बी एस येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने का मतलब

दक्षिण भारत में भारतीय जनता पार्टी की पहली सरकार बन गई है। सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी कही जाने वाली भाजपा का मुख्यमंत्री अब दक्षिण के एक सबसे समृद्ध राज्य की सत्ता संभाल रहा है। दक्षिण के किसी राज्य में भाजपा का मुख्यमंत्री बनना भारतीय राजनीतिक की एक ऐसी घटना के तौर पर दर्ज की जाएगी जो, देश में कांग्रेस का दर्जा भाजपा को मिलने की ओर इशारा करती है। वो, भी ऐसे समय में जब देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार सत्ता में है।

वैसे सच्चाई यही है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतने से ही भाजपा ने ये संकेत तो दे ही दिया था कि भाजपा देश में असल तौर पर कांग्रेस का विकल्प बनकर आ रही है। एक ऐसी पार्टी जिसको देश के शहरी भारत का सबसे ज्यादा भरोसा हासिल है। आज कर्नाटक में भाजपा का मुख्यमंत्री उस जनता दल के सहयोग से बना है। जो, अपने नाम में सेक्युलर लगाता है और इस पार्टी के मुखिया पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा की इस पार्टी के भाजपा सरकार को समर्थन देने से कुछ दिन पहले तक देवगौड़ा भाजपा को सांप्रदायिक बताकर उसका मुख्यमंत्री बनाने को राजी नहीं थे।

भाजपा और जनता दल एस के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर हुई नौटंकी के बाद ही बी एस येदियुरप्पा का नाम देश के दूसरे हिस्से के लोगों को पता लगा। इससे पहले येदियुरप्पा को कर्नाटक से बाहर कम ही लोग जानते हैं। कर्नाटक में भाजपा का चेहरा अनंत कुमार ही माने जाते रहे हैं। 1996 में पहली बार लोकसभा में पहुंचने वाले अनंत कुमार अभी कर्नाटक की कनारा लोकसभा सीट से तीसरी बार सांसद चुने गए हैं। विद्यार्थी परिषद के जरिए बीजेपी में पहुंचे अनंत कुमार ने छात्र राजनीति के समय से ही अच्छा संगठन तैयार कर लिया था। इसी दौरान येदियुरप्पा भी कर्नाटक की राजनीति में भगवा झंडे के साथ उतरे।

अनंत कुमार जहां कर्नाटक भाजपा का राष्ट्रीय चेहरा बने वहीं येदियुरप्पा ने राज्य में ही भगवा झंडे को परवान चढ़ाने का बीड़ा उठाया। 1982 में येदियुरप्पा ने बंधुआ मजदूरी के खिलाफ 300 किलोमीटर लंबा मार्च निकाला। युवा नेता येदियुरप्पा की राजनीति में वो पहली बड़ी शुरुआत थी। इस मार्च ने येदियुरप्पा को उनके अपने गृहजिले शिमोगा के शिकारीपुरा का हीरो बना दिया। अगले ही साल 1983 में हुए विधानसभा चुनाव में येदियुरप्पा विधानसभा के लिए चुन लिए गए और कर्नाटक के कद्दावर नेता रामकृष्ण हेगड़े की गठबंधन की सरकार में शामिल हुए। ये कर्नाटक में पहली गैर कांग्रेस सरकार थी।

कांग्रेस को तब मुश्किल से ही अंदाजा रहा होगा कि ये छोटा सा राजनीतिक घटनाक्रम आगे की राजनीति बदल देगा। खैर, जनता पार्टी और भाजपा की ये गठबंधन सरकार सिर्फ 18 महीने में ही गिर गई। लेकिन, येदियुरप्पा का सफर परवान चढ़ता गया। 1985 में 2 विधायकों वाली भाजपा 2004 में 79 विधायकों के साथ कर्नाटक की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 21 महीने बाद जनता दल एस के साथ हुए गठबंधन समझौते के मुताबिक, आखिर भाजपा ने कर्नाटक में सरकार बना ही ली। वैसे तो, राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भाजपा को बहुत पहले ही चुनाव आयोग से मिला हुआ है। लेकिन, सही मायने में भाजपा को अब राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस का विकल्प बनने का असली मौका मिला है।

देवगौड़ा के गिरगिट जैसे चरित्र को देखते हुए येदियुरप्पा और भाजपा को कितना समय अपनी पहचान छोड़ने के लिए मिल पाएगा ये तो, अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। लेकिन, भाजपा के लिए कर्नाटक के जरिए तमिलनाडु में घुसने का एक अच्छा मौका साबित हो सकता है। राम सेतु मामले में करुणानिधि के खिलाफ मोर्चाबंदी में भाजपा के साथ जयललिता शामिल हुईं थीं। और, सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों के दबदबे वाले तमिलनाडु में फीकी पड़ चुकी कांग्रेस की जगह लेने के लिए भाजपा के लिए ये एक अच्छा मौका साबित हो सकता है। कर्नाटक में खिला कमल मुरझाए न इसके लिए भाजपा को कर्नाटक को उत्तर प्रदेश भाजपा बनने से बचाना होगा।

Monday, November 12, 2007

Thursday, November 8, 2007

क्या जरूरत थी उत्तर प्रदेश, बिहार से मुलायम-लालू को हटाने की?

उत्तर प्रदेश और बिहार में सत्ता परिवर्तन जरूरी है। मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव इन राज्यों को देश के सबसे बरबाद राज्यों में पहले नंबर पर रखे हुए हैं। कुछ ऐसे ही नारों के झांसे में आकर उत्तर प्रदेश और बिहार की जनता ने राज्यों में नए लोगों को सत्ता थमा दी।
सत्ता में आने के बाद नीतीश ने ऐलान किया कि बिहार में अब लालू का जंगल राज खत्म हो गया है। अब राज्य में भय का माहौल समाप्त कर दिया जाएगा। किसी को भी इस बात की इजाजत नहीं दी जाएगी कि वो, राज्य की कानून व्यवस्था के साथ खिलवाड़ कर सके। नीतीश पूरे दम से ये बोल रहे थे और उनकी पार्टी के अनंत सिंह जैसे नेता भी अपने लोगों को भरोसा दिला रहे थे कि अब लालू के लोगों का भय खत्म हुआ। अब बिहार के लोगों को छोटे सरकार (लोकतंत्र पर धब्बा अनंत सिंह का यही उपनाम है) के आतंक के साये में रहना सीखना होगा।
कुछ लोग पत्रकार होने के गुरूर में अनंत की अनंत कथा समझ नहीं पाए। और, उनके खिलाफ एक मामले में उनसे सफाई लेने पहुंच गए। बस फिर क्या नीतीश के भयमुक्त राज का उन्हें असली मतलब समझाया गया, पत्रकार पिटे थे इसलिए देश भर के मीडिया ने अनंत के काले कारनामों को नीतीश के साथ जोड़कर हंगामा किया तो, अनंत को नीतीश ने जेल भिजवा दिया। जैसे ही अनंत जेल गए, टीवी चैनलों से भी अनंत-नीतीश कलंक कथा गायब सी हो गई। मामला ठंडा पड़ा तो, पहली बात सामने आई कि जिस लड़की रेशमा की लाश होने की बात कही जा रही थी वो, लाश किसी और की थी। बस इसी आधार पर अदालत ने अनंत को और उसके गुंडों को जमानत दे दी। अनंत बाहर हैं। हो, सकता है कि नीतीश के ‘भयमुक्त’ राज को फिर से स्थापित करने में जी जान से जुटे भी हों।
लालू राज के बिहार जैसा ही राज उत्तर प्रदेश में मुलायम ने बनाए रखा। मुलायम सत्ता से गए तो, उनकी जगह आई मायावती ने भी बिहार के नीतीश राज से बराबरी शुरू कर दी। बिहार के एक विधायक अनंत सिंह पर लड़की से बलात्कार के बाद उसकी हत्या का आरोप दिखा तो, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री आनंदसेन यादव ने यहां इसका जिम्मा संभाल लिया। उत्तर प्रदेश में और ही हद हो गई।
मंत्री आनंदसेन यादव के ऊपर आरोप है कि उन्होंने फैजाबाद में विधि स्नातक की छात्रा शशि के साथ अनैतिक संबंध कायम किए (अब तो मैं भ्रम में पड़ गया हूं कि ये अब अनैतिक रहा भी है क्या) फिर एक दिन अचानक शशि गायब हो गई। अंदेशा है कि उसकी हत्या कर दी गई। पुलिस शशि की लाश अब तक नहीं खोज पाई है। वैसे बिहार में भी रेशमा की लाश अब तक नहीं मिली है।
यहां भी मामला जब मीडिया में आया तो, एक दिन बाद मंत्री आनंदसेन ने इस्तीफा तो दे दिया। लेकिन, आश्चर्य है कि अब तक मंत्री आनंदसेन यादव के खिलाफ कोई जांच ही नहीं शुरू हुई है। जबकि, अब तक मिले सुबूतों से साफ है कि गायब होने से पहले शशि सुल्तानपुर में मंत्री आनंदसेन के साथ देखी गई थी। लेकिन, पुलिस सिर्फ शशि की लाश खोजने में लगी है। हां, आनंदसेन के ड्राइवर से जरूर पूछताछ चल रही है। अब सवाल ये है कि अगर आनंदसेन को सरकार दोषी नहीं मानती तो, उनसे इस्तीफा लेने की क्या जरूरत थी। और, अगर इस्तीफे का आधार आरोपी होना है तो, फिर एफआईआर में आनंदसेन का नाम क्यों नहीं है।
उत्तर प्रदेश में सारे समीकरणों को तोड़कर जनता ने मायावती को भय, भ्रष्टाचार और आतंक के खिलाफ पूर्ण बहुमत दिया। मायावती को सत्ता मिली तो, माया ने कहा – मायाराज में मलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंक-जंगलराज पूरी तरह से खत्म होगा। महीने भर में ही मुलायम के गुंडे अंदर हो गए। कानून का राज दिखने लगा। और, अब उत्तर प्रदेश में सिर्फ मायावती के लोगों को भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज चल रहा है। मुलायम राज का भय, भ्रष्टाचार और आतंकराज खत्म हो गया। मैडम मायावती ने अपना चुनावी वादा पूरा कर दिया।
अब राज्य में इस राज्य के खात्मे के लिए लोगों को 5 साल इंतजार करना होगा। मैं सोचता हूं फिर जरूरत क्या थी उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह यादव और बिहार से लालू प्रसाद यादव को हटाने की। मैं नहीं समझ पाया- आपको समझ में आए तो मुझे बताइए।

Sunday, November 4, 2007

दुनिया के लिए दहशत बन गया मुल्क पाकिस्तान

पाकिस्तान में कितने लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए जनप्रतिनिधियों ने सत्ता संभाली और कितने तानाशाहों ने इस मुल्क पर राज किया। या फिर कितनी बार चुनाव हुए और कितनी बार वहां तख्त पलट कर-आपातकाल लगा। दोनों की ही गिनती लगभग बराबर ही निकलेगी। यहां तक कि लोकतांत्रिक सरकार से ज्यादा समय पाकिस्तान में तानाशाहों का शासन रहा। शायद यही वजह है कि पाकिस्तान सिर्फ एक मुल्क न रहकर दुनिया के लिए दहशत बन गया है।
पाकिस्तान की तानाशाही हुकूमतों ने वहां के लोगों के अधिकारों को इस तरह से कुचला है कि अब तो, वहां आपातकाल कोई बड़ी घटना जैसी भी नहीं लगती। लेकिन, अगर पाकिस्तान के सबसे कमीने तानाशाह शासक की बात होगी तो, मुशर्रफ पहले के सभी तानाशाहों को पानी पिला देंगे। यही वजह है कि मुशर्रफ के दांव के आगे पूरी पाकिस्तानी राजनीति चारों खाने चित्त हो गई है। मुशर्रफ ने पाकिस्तान में चरमपंथी (जिन्हें भारत में पिछले 60 साल से आतंकवादी बनाकर भेजा जाता रहा है) और न्यापालिका की अनावश्यक दखलंदाजी को आपातकाल लगाने की वजह बताया है। बेनजीर कह रही हैं ये आपातकाल नहीं मार्शल लॉ है।
अब मुशर्रफ और बेनजीर इमरजेंसी और मार्शल लॉ पर क्यों लड़ रहे हैं। दरअसल ये पाकिस्तान की मुशर्रफ शैली की राजनीति की वजह से है। मुशर्रफ एक ऐसे तानाशाह हैं जो, बार-बार दुनिया के अलग-अलग मंचों से ये जाहिर करने की जी भरके कोशिश करते रहे हैं कि वो लोकतंत्र बहाली और पाकिस्तान में अमन चाहते हैं। मुशर्रफ अपने को वर्दी में लोकतंत्र का रक्षक साबित करना चाहते थे। इसीलिए अब मुशर्रफ इमरजेंसी कहकर देश के हितों का हवाला देकर राज करना चाहते हैं। जबकि, बेनजीर इसे मार्शल लॉ यानी सेना का राज बताकर देश की अवाम को लोकतंत्र बहाली के लिए मुशर्रफ के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार करना चाहती हैं।
इन सबके बीच में हैं नवाज शरीफ जो, लंदन से इस्लामाबाद फतह करने निकले थे। लेकिन, शायद उनसे ज्यादा चालाक मुशर्रफ निकले। मुशर्रफ ने उन्हें बैरंग सऊदी पहुंचा दिया। शरीफ के समर्थक शरीफ के आसपास फटक तक नहीं पाए। वहीं जब बेनजीर ने मुशर्रफ से एक गुप्त समझौता किया तो, मुशर्रफ ने दुनिया को दिखाने के लिए बेनजीर को वतन वापसी का मौका दिया। और, उनके समर्थकों को जश्न मनाने का भी। लेकिन, ये जश्न मातम में बदल गया। जब, बेनजीर पर हुए आत्मघाती हमले में 150 से ज्यादा लोगों की जानें चली गईं।
दुनिया भर के टीवी चैनल के कैमरे दो दिन तक पाकिस्तान पर ही टिके रहे। एक बार शरीफ को बैरंग लौटाने वाले दिन। दूसरी बार बेनजीर के स्वागत और फिर मातम में बदलने के दिन। लेकिन, अगर दोनों दिनों के घटनाक्रम, टीवी पर दिख रही तस्वीरों को ध्यान से याद करें तो, साफ था कि पाकिस्तान में आपातकाल जैसा माहौल तो मुशर्रफ ने पहले ही तैयार कर रखा था। लेकिन, वो अमेरिका और दूसरे देशों के सामने ये साबित नहीं होने देना चाहता था कि वो लोकतंत्र विरोधी है। शरीफ ने मुशर्रफ के खिलाफ जेहादी बनने की कोशिश की थी। जबकि, बेनजीर शरीफ के बाहर जाने के बाद लोकतंत्र की उम्मीदों को जिंदाकर फिर से सत्ता हथियाना चाहती थीं। लेकिन, जब पाकिस्तान पहुंचने से ठीक पहले बेनजीर के सुर थोड़े बदलते दिखे तो, मुशर्रफ को फिर से आपातकाल की याद आई।
वैसे, मुशर्रफ ने अपनी जिंदगी में कितने भी झूठ बोले हों। आपातकाल लगाने की दोनों वजहें एकदम सही बताई हैं। मुशर्रफ को ये गुमान था कि चरमपंथ उनके कहे के मुताबिक चलेंगे। और, जब वो जितना जेहाद फैलाने का आदेश देंगे, उससे आगे कुछ नहीं होगा। जब ये भ्रम टूटने लगा तो, मुशर्रफ को गद्दी पर खतरा दिखने लगा। उस पर जब, जस्टिस इफ्तिखार चौधरी को मुशर्रफ ने चीफ जस्टिस के पद से हटाया तो, चौधरी पाकिस्तान में लोकतंत्र के नायक बन गए। दोनों मोर्चों पर मात खा रहे मुशर्रफ ने बेनजीर से गुप्त समझौता करके एक और दांव खेलने की कोशिश की। लेकिन, जब वो दांव भी बेकार गया तो, मुशर्रफ ने अपनी वो ताकत आजमाई जिसके बूते उन्होंने पहली बार लोकतंत्र को ठेंगे पर रखा था।
आपातकाल की तैयारी में ही मुशर्रफ ने ISI चीफ हामिद गुल को बेदखल कर दिया था। शायद हामिद गुल के मन में भी कुछ तानाशाही विचार आने लगा था। यही वजह है कि आपातकाल लगते ही नेताओं के अलावा गिरफ्तार किए गए लोगों में हामिद भी शामिल है। इमरान खान नजरबंद हैं। अब तक ढेर सारे वकील और लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता जेल पहुंच चुके हैं। लेकिन, सवाल ये है कि क्या 1999 में जब नवाज शरीफ की सत्ता पलटी थी। उसी तरह से मुशर्रफ आसानी से सत्ता हथियाकर हीरो बन जाएंगे।
मुझे लगता है कि इस बार मियां मुशर्रफ के लिए मुश्किलें ज्यादा हैं। पाकिस्तान में एक बड़ी जमात अमेरका-ब्रिटेन में रह रही है। वो, तरक्की चाहती है। उसे पाकिस्तान के भ्रष्ट नेताओं पर भरोसा कम ही है। लेकिन, इफ्तिखार चौधरी इस वर्ग के नए नेता बन गए हैं। आपातकाल के ऐलान के बाद इस नए पाकिस्तानी मुसलमानों की बदलती आवाज पर इंटरनेट पर साफ सुनी जा सकती है। ये साफ है कि मुशर्रफ के फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव जीतने पर सुप्रीमकोर्ट रोक लगाने वाला था। और, मुशर्रफ विरोध का जज्बा पाकिस्तान में कितना काम कर रहा है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इफ्तिखार चौधरी के अलावा 8 दूसरे जजों ने भी आपातकाल लगाने का मुशर्रफ का आदेश मानने से इनकार कर दिया।
पूरे पाकिस्तान में सेना असीमित अधिकार के साथ सड़कों पर है। नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं। संविधान बर्खास्त कर दिया गया है। निजी न्यूज चैनल बंद कर दिए गए हैं। मीडिया के दफ्तरों पर सेना तैनात है। लेकिन, सड़कों पर मुशर्रफ विरोध करने वाले उतर रहे हैं। वकीलों का एक बड़ा जत्था मुशर्रफ विरोध की अगुवाई कर रहा है। सेना में भी एक बड़ा जत्था मुशर्रफ के खिलाफ है। हामिद गुल उस गुट के नेता बन रहे थे। जस्टिस वजीहुद्दीन अहमद की मानें तो, सेना का बड़ा हिस्सा उनके साथ है। अहमद मुशर्रफ के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ चुके हैं। अहमद कह रहे हैं कि आने वाले दिनों में पाकिस्तान दुनिया को चौका देगा। क्योंकि, सेना का बड़ा हिस्सा मार्शल लॉ नहीं कानून का राज चाहता है।
अब अहमद की बात कब सही हो पाएगी ये तो, पता नहीं। लेकिन, ये होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि, पाकिस्तान में इस तरह के तानाशाही शासकों की वजह से ही पाकिस्तान दुनिया में दहशत फैलाने वाला मुल्क बनकर रह गया है। पाकिस्तान पूरे इस्लाम के लिए गाली बन गया है। पाकिस्तानी तानाशाहों की ही काली करतूतें हैं कि लंदन, न्यूयॉर्क से दिल्ली तक मुस्लिम जेहाद (आतंकवाद) का पर्याय भर बनकर रह गए हैं। किसी भी एक आतंकवादी घटना पर पाकिस्तानी ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में रह रहे भारतीय मुसलमान भी शक की नजर से देखे जाते हैं। इसलिए इस्लाम, पाकिस्तान और खासकर भारतीय मुसलमानों के हक में है कि जल्द से जल्द मुशर्रफ की तानाशाही पर रोक लगे।
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का नाम देकर अमेरिका ने इराक को तबाह कर दिया। सद्दाम को फांसी चढ़ा दी। लेकिन, सच्चाई यही है कि इराक से आज तक किसी भी आतंकवादी को मदद की बात सामने नहीं आई है। न ही सद्दाम के राज में लादेन का आतंक इराक के रास्ते राज करता था। इराक अपने पड़ोसी देशों की परिस्थिति के लिहाज से उस तरह तैयार हुआ और वहां के जातीय संघर्ष में सद्दाम जैसा तानाशाह बना। लेकिन, सद्दाम की तानाशाही से खतरनाक मुशर्रफ की ये तानाशाही है क्योंकि, एक बार फिर से पाकिस्तान जेहादियों के लिए जन्नत बन सकता है।
भारत के लिए ये सबसे ज्यादा चिंता की बात है। क्योंकि, इस्लाम विरोधी का तमगा हटाने के लिए मुशर्रफ जेहादियों को फिर से मदद देना शुरू कर सकते हैं। सर्दियों की शुरुआत हो रही है वैसे भी इस समय पाकिस्तानी फौज की गोलाबारी की आड़ में अक्सर जेहादी भारत में घुसते रहे हैं। डोडा में धारा 144 लगाई जा चुकी है। पाकिस्तान में आपातकाल के ऐलान के तुरंत बाद से सेना और पुलिस हाई अलर्ट पर है। ऐसे में भारत में स्थिरता के लिए भी जरूरी है कि पाकिस्तान में किसी भी तरह लोकतंत्र की बहाली हो सके।

Saturday, November 3, 2007

बिहार को बरबादी-बदनामी से रोकने का आखिरी मौका

ज्यादा आशंका इसी बात की है कि 7 नवंबर को अदालत से बौराए विधायक अनंत कुमार सिंह को जमानत मिल जाए। और, वो अपने शाही बंगले में पहुंचकर फिर से कानून और लोकतंत्र को अपनी जेब में रखने का अहंकार दिखाने लगे। पत्रकार पिटे औऱ जमकर पिटे। इस पिटाई ने बिहार में कानून व्यवस्था की पोल तो, खोलकर रख ही दी है। साथ ही ये भी साफ दिख रहा है कि नीतीश कुमार अगर इस मौके पर चूक गए तो, फिर से बिहार को बरबादी और बदनामी के चंगुल में पूरी तरह फंसने से कोई रोक नहीं सकता।
पत्रकारों के पिटने का बहाना लेकर राजनीति भी शुरू हो गई है। शुक्रवार को लालू की राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान को लोक जनशक्ति पार्टी ने बंद रखा। और, राबड़ी देवी ने अनंत सिंह को फांसी देने की मांग भी कर डाली। पता नहीं राबड़ी देवी को याद है कि जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या करवाने के आरोपी की उनके पति लालू प्रसाद यादव के शासन में कितनी चलती थी। जाहिर है ये सारे लोग अनंत कुमार के पागलपन और नीतीश कुमार के मजबूरी के शासन का फायदा उठाकर फिर से सत्ता में लौटना चाहते हैं।
दरअसल अनंत कुमार सिंह जैसे लोगों की उत्पत्ति लालू राज का वो कोढ़ है जो, अब ठीक नहीं पा रहा है। नीतीश कुमार ने बिहार में जनता के बदलते मूड को पकड़ा जिसकी वजह से जनता ने उन्हें उनके सपनों की कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन, नीतीश ने लालू के बाहुबलियों से मुकाबले के लिए अनंत कुमार सिंह और दूसरे कई बाहुबलियों को प्रश्रय देना भी शुरू कर दिया था। इन लोगों ने नीतीश कुमार के लिए चंदा भी जुटाया। गोली भी चलाई और अब वो सारे किए को बिहार की जनता से वसूल रहे हैं।
नीतीश के प्यारे छोटे सरकार (लोकतंत्र पर ऐसे विशेषण गाली की तरह हैं) जेल से राज चलाते हैं। नीतीश कुमार अनंत कुमार जैसे पागल गुंडे को सार्वजनिक मंच पर गले लगाकर गदगद हो जाते हैं। नीतीश को तब भी समझ में नहीं आता जब अनंत कुमार के यहां सार्वजनिक मौके पर एके 47 से गोलयां चलती हैं। नीतीश कुमार को इस पागलपन का अहसास तब भी नहीं होती। जब अनंत कुमार कानून को ठेंगा दिखाते हुए बड़े मजे से किसी चैनल पर कहते हैं कि हां, एक ठेकेदार ने उन्हें मर्सिडीज कार तोहफे में दी है। मैंने उसे कह दिया है कि अब जाओ मजे से काम शुरू करो।
नीतीश कुमार को तब भी पता नहीं चलता कि वो बिहार को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। जब, उन्हें रेशमा खातून नाम की महिला अनंत कुमार सिंह की काली करतूतों के बारे में चिट्ठी लिखती है। साफ-साफ लिखती है कि अनंत कुमार सिंह उनके साथियों ने उसके साथ बलात्कार किया। अब उसकी कभी भी हत्या की जा सकती है। लेकिन, नीतीश सरकार कान में तेल डालकर बैठी रही। अब तो ये लगभग साफ हो गया है कि बेनामी लाश रेशमा खातून की ही है। यानी बिहार में मुख्यमंत्री से फरियाद भी गुंडों से नहीं बचा पाती है।
इसी मामले के बारे में पत्रकार जब अपने धर्म को निभाते हुए आरोपी से भी उनका पक्ष जानने गए तो, उन्हें बिहार के नए नीति नियंताओं ने मार-मारकर लहूलुहान कर दिया। मुझे लगता है, रेशमा खातून के पत्र की सच्चाई पर शक करने की अब तो कोई वजह नहीं दिखती। लालू के राज में हुए वसूली, बलात्कार, हत्या, अपहरण के मामलों को ही मुद्दा बनाकर नीतीश को सत्ता मिल गई। लेकिन, नीतीश के राज में भी वही सब होने लगा। बस, करने वालों के चेहरे बदल गए। नीतीश शायद कुर्सी पाने के बाद ये भूल गए हैं कि मुख्यमंत्री से सड़क पर सरकार का विरोध करने वाले नेता पर पड़ती सरकारी लाठी में बहुत ज्यादा फासला नहीं होता है।
अभी भी नीतीश कुमार के आशीर्वाद के भरोसे पगलाया अनंत कुमार पत्रकारों को जेल से ही मरवाने की धमकी दे रहा है। नीतीश कुमार के लिए ये आखिरी मौका होगा कि वो किसी भी तरह से अनंत कुमार जैसे लोगों के चंगुल से बिहार को बंधक बनाने से रोक लें। क्योंकि, अगर ये साबित हो गया कि बस चेहरे बदल गए हैं बिहार वैसे का वैसा ही है तो, फिर से बिहार की जनता परिवर्तन का मन बनाने में जाने कितने साल लगा देगी। नीतीश को ये समझना होगा कि बिहार में निवेशकों को बुलाने के सम्मेलन और कुछ सड़के, पुल बना देने भर से बिहार नहीं सुधरने-बदलने वाला।
बिहार का कोढ़ है यहां समाज व्यवस्था में घुस गया कानून को ठेंगे पर रखने का चलन। हर कोई इसी बात में खुश रहना चाहता है कि उसे कानून का कोई डर नहीं। अनंत कुमार को कड़ी सजा मिले ये नीतीश के खुद के स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए जरूरी है। रेशमा खातून के पत्र में साफ लिखा था कि वो नीतीश को अपने छोटे-छोटे, लुच्चे-लफंगे टाइप के गुंडों के सामने भी अकसर गरियाता रहता है। साफ है अनंत कुमार के घर का चौकीदार भी नीतीश की इज्जत तो नहीं ही करता होगा। अब अगर नीतीश अपनी ही इज्जत नहीं बचा पाते हैं तो, फिर उनको बिहार की इज्जत बचाने का जिम्मा कैसे दिया जा सकता है। नीतीशजी आप सुन रहे हैं ना या आपको लुच्चों-लफंगों-गुंडों के अलावा किसी की आवाज भी सुनाई नहीं देती?

Friday, November 2, 2007

वामपंथी खाते भारत की हैं, चिंता चीन की करते हैं


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अमेरिका के साथ भारत के परमाणु समझौते के विरोध की असली वजह करात ने बता ही दी। सीपीएम महासचिव प्रकाश करात इसलिए नहीं चिंतित हैं कि उन्हें भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से भारते के हितों को नुकसान होता दिख रहा है। वो, परेशान इसलिए हैं कि भारत-अमेरिका के साथ समझौता करके चीन को कमजोर कर देगा।
कोलकाता में कल सोवियत क्रांति की 90वीं वर्षगांठ पर सारे कॉमरेडों के बीच में ये करात की स्वीकारोक्ति थी (देश की आजादी के कितने कार्यक्रम वामपंथियों को उत्साह से मनाते देख जाता है)। खैर, सोवियत क्रांति की 90वीं वर्षगांठ पर करात ने कहा कि हम तब तक आराम से नहीं बैठने वाले जब तक कि अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी को पूरी तरह खत्म नहीं कर देते। करात की दलील मानें तो, अमेरिका की नजर भारत के बाजार पर है। और, वो भी इसलिए कि अमेरिका भारत के बाजार में हिस्सा लेकर चीन से बढ़त बनाए रखना चाहता है। करात कहते हैं कि इसकी वजह साफ है कि चीन अकेला देश है जो, अर्थव्यवस्था के मामले में अमेरिका से आगे निकल सकता है।
करात को भरोसा है कि 2050 तक चीन अमेरिका से आगे निकल जाएगा। बस यही चिंता करात को खाए जा रही है कि भारत-अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी से उनके सपनों का देश चीन कहीं पीछे न रह जाए। करात के पूरे भाषण में कहीं भी ये चिंता या खुशी नहीं दिखी कि अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी से भारत को कितना नुकसान या फायदा होगा। कॉमरेड करात को ये भी लगता है कि लाल सलाम करने वाला चीन अकेला सबसे ताकतवर कम्युनिस्ट देश है जो, अमेरिका को चुनौती दे सकता है। करात को कभी ये सपने में भी नहीं आता होगा कि भारत चीन को या अमेरिका को चुनौती देने लायक कैसे बन सकता है।
परमाणु समझौते पर लाल हो रहे करात ने एक और तथ्य का खुलासा किया कि अमेरिका ने पाकिस्तान को इसलिए छोड़ा क्योंकि, भारत उसे बड़ा बाजार दिख रहा है। अब साफ भारत की तकत को अमेरिका क्या दुनिया पूज रही है। लेकिन, करात को इससे एशिया में चीन को नुकसान होता दिख रहा है। इसलिए वो भारत के नुकसान पर भी समझौता करने के लिए तैयार हैं।
करात ने कॉमरेडों को भरोसा दिलाया कि पश्चिम बंगाल पूंजीवाद से मुकाबला करता रहा है (बुद्धदेव बाबू सुन रहे हैं) और आगे भी करता रहेगा। बूढ़े कॉमरेड ज्योति बसु ने महिला कैडर को यूपीए सरकार की ‘जनविरोधी’ (वो, हर बात जो कॉमरेडों को पसंद न आए) नीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने को कहा। साथ ही बसु ने मजबूरी भी जताई कि विकल्पहीनता की वजह से वो कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं। मजबूरी सिर्फ बीजेपी के विरोध की है (पता नहीं वामपंथियों को ये भ्रम क्यों है कि चीन की वकालत करने वालों को देश के लोग देश अकेले चलाने का विकल्प दे देंगे)।
ये वही बसु हैं जो, सरकार गिरने की नौबत पर सरकार बचाने के लिए लाल कॉमरेडों को मनाने में जी जान से जुटे हुए थे। अब ये कांग्रेस को मजबूरी का समर्थन दे रहे हैं। कोलकाता में पोलित ब्यूरो और कॉमरेड मीटिंग के बाद दिल्ली आते-आते वामपंथियों का चरित्र इतना क्यों बदल जाता है, ये सोचने वाली बात है। अब तक मेरे जैसे देश के बहुत से लोगों को ये लगता था कि वामपंथी भारत के हितों के लिए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का विरोध कर रहे हैं। अच्छा हुआ उनका दोगला चरित्र फिर से सामने आ गया। वैसे तो, अब ये चीन की भी हैसियत नहीं है। लेकिन, अब आप समझ सकते हैं कि अगर गलती से भी ऐसी संभावना बनी और चीन ने दुबारा हमारे देश पर हमला किया तो, वामपंथी किसके पक्ष में खड़े रहेंगे।