Sunday, December 30, 2007

मायावती की महत्वाकांक्षा, भाजपा के लिए काम की है!

राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की बड़ा बनने की इच्छा बीजेपी के खूब काम आ रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से पटखनी देने वाली मायावती देश के दूसरे राज्यों में बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। जबकि, केंद्र में भले ही मायावती कांग्रेस से बेहतर रिश्ते रखना चाहती हो। राज्यों में बहनजी की बसपा कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर रही है।

गुजरात के बाद हिमाचल की सत्ता भी सीधे-सीधे (पूर्ण बहुमत के साथ) भारतीय जनता पार्टी को मिल गई है। गुजरात में जहां मोदी सत्ता में थे लेकिन, मोदी के विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व का एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग असली वजह रही। वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में थी और उसके कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।

दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।

मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और, बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं।

गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो, वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।

इस साल हुए छे राज्यों के चुनाव में भाजपा को चार राज्यों में सत्ता मिली है। हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में भाजपा ने अकेले सरकार बनाई है जबकि, पंजाब में वो अकाली की साझीदार है। कांग्रेस सिर्फ गोवा की सत्ता हासिल कर पाई और बसपा को उत्तर प्रदेश में पहली बार पांच साल शासन करने का मौका मिला है।

2008 में होने वाले चुनावों को देखें तो, दिल्ली में कांग्रेस की सरकार दो बार से चुनकर आ रही है। सत्ता विरोधी वोट तो कांग्रेस के लिए मुश्किल बनेंगे ही। बसपा भी यहां कांग्रेस के लि मुश्किल खड़ी करेगी। दिल्ली नगर निगम में बसपा के 17 सभासद हैं। मध्य प्रदेश बसपा, भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। शिवराज के नेतृत्व से लोग खुश नहीं हैं और शिवराज सिंह चौहान, मोदी या फिर उमा भारती जैसे अपील वाले नेता भी नहीं हैं। वैसे, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी अगले साल ही होने हैं। और, दोनों ही राज्यों में भाजपा के लिए सरकार बनाना बड़ी चुनौती होगी।

गुजरात चुनावों में भारी जीत और हिमाचल में मिली सत्ता के बाद भले ही लाल कृष्ण आडवाणी और दूसरे भाजपा नेता दहाड़ने लगे हों कि ये दोनों जीत 2009 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी के संकेत हैं। ये इतना आसान भी नहीं दिखता। क्योंकि, पंजाब और उत्तराखंड में मिली जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को मात खानी पड़ गई थी।

Sunday, December 23, 2007

राष्ट्रीय राजनीति में कहां खड़े हैं नरेंद्र मोदी

नरेंद्र मोदी फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए हैं। औपचारिक तौर पर मोदी 27 दिसंबर को शपथ ले लेंगे। अब मीडिया में बैठे लोग अलग-अलग तरीके से मोदी की जीत का विश्लेषण करने बैठ गए हैं। वो, अब बड़े कड़े मन से कांग्रेस को इस बात के लिए दोषी ठहरा रहे हैं कि कांग्रेस मोदी के खिलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ पाई।

खैर, कोई माने या ना माने, गुजरात देश का पहला राज्य बन गया है जहां, विकास के नाम पर चुनाव लड़ा गया और जीता गया। विकास का एजेंडा ऐसा है कि गुजरात के उद्योगपति चिल्लाकर कहने लगते हैं कि कांग्रेस या फिर बीजेपी में खास फर्क नहीं है। फर्क तो नरेंद्र मोदी है। अब सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी विकास का ये एजेंडा लेकर राष्ट्रीय स्तर की राजनीति कर सकते हैं।

मेरी नरेंद्र मोदी से सीधी मुलाकात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी। पहली बार मोदी को सीधे सुनने का मौका भी मिला था। खुटहन विधानसभा में एक पार्क में हुई उस रैली में पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ सुनने के लिए जुटी थी। खुटहन ऐसी विधानसभा है जहां, आज तक कमल नहीं खिल सका है। और, मोदी की जिस दिन वहां सभी उस दिन उसी विधानसभा में उत्तर प्रदेश के दो सबसे कद्दावर नेताओं, मुलायम सिंह यादव और मायावती की रैली थी। ये भीड़ उसके बाद जुटी थी।

मोदी ने भाषण के लिए आने से पहले विधानसभा का समीकरण जाना। और, मोदी के भाषण का कुछ ऐसा अंदाज था कि जनता तब तक नहीं हिली जब तक, मोदी का हेलीकॉप्टर गायब नहीं हो गया। मोदी ने कहा- देश के हृदय प्रदेश को राहु-केतु (मायावती-मुलायम) का ग्रहण लग गया है। मोदी ने फिर गुजरात की तरक्की का अपने मुंह से खूब बखान किया। और, उसके बाद वहां खड़े लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ लिया। मोदी ने कहा- उत्तर प्रदेश के हर गांव-शहर से ढेरों नौजवान हमारे गुजरात में आकर नौकरी कर रहे हैं। लेकिन, मुझे अच्छा तब लगेगा जब किसी दिन कोई गुजराती नौजवान मुझसे आकर कहे कि उत्तर प्रदेश में मुझे अपनी काबिलियत के ज्यादा पैसे मिल रहे हैं। मैं अब गुजरात में नहीं रुके वाला।

साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों के बूते सत्ता का स्वाद चखने वाला मोदी उत्तर प्रदेश के लोगों को गुजरात से ज्यादा तरक्की के सपने दिखा रहे था। मोदी ने फिर भावनात्मक दांव खेला। कहा- हमारे यहां गंगा मैया, जमुना मैया होतीं तो, क्या बात थी। हमारे यहां सूखा पड़ता है पानी की कमी रहती है लेकिन, एक नर्मदा मैया ने हमें इतना कुछ दिया है कि हमारा राज्य समृद्धि में सबसे आगे है।

लेकिन, मोदी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने धीरे से एक जुमला सुनाया कि हमारे कांग्रेसी मुख्यमंत्री मित्र सम्मेलनों में मिलते हैं तो, उनसे मैं पूछता हूं कि सोनिया और राहुल बाबा के अलावा आप लोगों के पास देश को देने-बताने के लिए कुछ है क्या। उन्होंने कहा कि असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं। असम के लोगों को काम नहीं मिल रहा है। बांग्लादेशी लेबर 30 रुपए रोज में ही काम करने को तैयार हो जाते हैं और, उनकी घुसपैठ भी बढ़ती ही जा रही है। मोदी ने बड़े सलीके से घुसपैठ का मुद्दा विकास के साथ जोड़ दिया था।

उत्तर प्रदेश की खुटहन विधानसभा में मोदी का भाषण सुनने वाले गुजरात के विकास से गौरवान्वित होने लगे थे। मोदी ने कहा- मैंने कांग्रेसी मुख्यमंत्री से कहा आपकी थोड़ी सीमा बांग्लादेश से सटी है तो, आप परेशान हैं। गुजरात से पाकिस्तान से लगी है और मुझसे मुशर्रफ तो क्या पूरा पाकिस्तान परेशान है। जाने-अनजाने ही उत्तर प्रदेश के लोग विकास से गौरवान्वित हो रहे थे और पाकिस्तान, बांग्लादेश की घुसपैठ की समस्या उनकी चिंता में शामिल हो चुकी थी।

ये थी मोदी कि कॉरपोरेट पॉलीटिकल पैकिंग। जिसके आगे बड़े से बड़े ब्रांड स्ट्रैटेजी बनाने वालों को भी पानी भरना पड़ जाए। यही पैकिंग थी जो, ‘जीतेगा गुजरात’ नाम से आतंकवाद, अफजल, सोहराबुद्दीन के साथ विकास, गुजराती अस्मिता को एक साथ जोड़ देती है। ये बिका और जमकर बिका।

और, मोदी की इस कॉरपोरेट पैकिंग को और जोरदार बना दिया, मोदी के खिलाफ पहले से ही एजेंडा सेट करके गुजरात का चुनाव कवरेज करने गए पत्रकारों ने। ऐसे ही बड़े पत्रकारों ने मोदी को इतना बड़ा कर दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ये बयान देना पड़ा कि मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी मोदी के डर से की गई है। ज्यादातर बहस इस बात पर हो रही है कि मोदी आडवाणी के लिए खतरा हैं या नहीं। दरअसल इसमें बहस का एक पक्ष छूट जा रहा है कि क्या देश में लाल कृष्ण आडवाणी से बेहतर प्रधानमंत्री पद के लिए कोई दूसरा उम्मीदवार है। जहां तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात है तो, ये जगजाहिर है कि वो कोई ऐसे नेता नहीं हैं जो, लड़कर चुनाव लड़कर देश की सबसे ऊंची गद्दी तक पहुंचे हों। मनमोहन जी को ये भी अच्छे से पता है कि सोनिया की आंख टेढ़ी हुई तो, गद्दी कभी भी सरक सकती है।

मैं भी गुजरात चुनाव के दौरान वहां कुछ दिनों के लिए था। दरअसल गुजरात में मोदी के खिलाफ कोई लड़ ही नहीं रहा था। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे कुछ मीडिया हाउस। कुछ एनजीओ, जिनमें से ज्यादातर तीस्ता सीतलवाड़ एंड कंपनी के जैसे प्रायोजित और सिर्फ टीवी चैनलों पर दिखने की भूख वाले लगते थे या फिर नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से परेशान और फिर मोदी की ओर से परेशान किए गए बीजेपी के ही कुछ बागी।

मोदी जीत गए हैं। सबका उन्होंने आभार जताया। साठ परसेंट गुजरातियों ने वोट डाला। और, उसमें से भी बीजेपी को करीब पचास परसेंट वोट मिले हैं लेकिन, मोदी ने कहा ये साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की जीत है। मोदी ने हंसते हुए कहा कि नकारात्मकता को जनता ने नकार दिया है। गुजरात के साथ मोदी फिर जीत गए हैं। केशुभाई और मनमोहन सिंह की बधाई स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि चुनाव खत्म, चुनावी बातें खत्म। अब मोदी गुजरात के राज्य बनने के पचास साल पूरे होने पर राज्य को स्वर्णिम बनाने में जुटना चाहते हैं।

नरेंद्र मोदी के अलावा बीजेपी में एक और नेता था जो, हिंदुत्व, विकास की कुछ इसी तरह पैकेजिंग कर सकता था। लेकिन, उनकी समस्या ये है कि वो, उमा भारती का भी बीड़ा उठाए रखते हैं। और, उमा भारती को लगता है रामायण, महाभारत की कथा सुनाकर और हर किसी से जोर-जोर से बात करके बीजेपी कार्यकर्ताओं का नेता बना जा सकता है। उमा भारती ने भी दिग्विजय के खिलाफ लड़ाई लड़कर उन्हें सत्ता से बाहर किया। लेकिन, बड़बोली उमा खुद को संभाल नहीं पाईं और खुद मुख्यमंत्री होते हुए भी दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं से लड़ती रहीं। बहाना ये कि दिल्ली में बैठे नेता उनके खिलाफ राजनीति कर रहे हैं।

मोदी कभी भी राज्य के किसी नेता के खिलाफ शिकायत लेकर दिल्ली नहीं गए। राज्य बीजेपी के नाराज दिग्गज नेता दिल्ली का चक्कर लगाते रहे, मोदी के खिलाफ लड़ते रहे और मोदी गुजरातियों के लिए लड़ाई लड़ने की बात गुजरातियों तक पहुंचाने में सफल हो गए। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी बीजेपी की दूसरी पांत के सभी नेताओं से बड़े हो गए हैं। लेकिन, आडवाणी के कद के बराबर पहुंचने के लिए अभी भी मोदी को बहुत कुछ करना होगा।

मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी जैसे आगे की रणनीति बनाने वाले नेता के लिए पांच-सात साल का इंतजार करना ज्यादा मुश्किल होगा। लाल कृष्ण आडवाणी 80 साल के हो गए हैं। और, मोदी सिर्फ 57 साल के हैं। बूढ़े नेताओं पर ही हमेशा भरोसा करने वाले भारतीय गणतंत्र के लिए मोदी जवान नेताओं में शामिल हैं। और, आडवाणी बीजेपी को सत्ता में लौटा पाएं या नहीं, दोनों ही स्थितियों में 2014 में आडवाणी रेस से अटल बिहारी की ही तरह बाहर हो जाएंगे। साफ है 2014 के लिए बीजेपी के सबसे बड़े नेता की मोदी की दावेदारी अभी से पक्की हो गई है।

Thursday, December 13, 2007

लाल कृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मतलब

भाजपा ने आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी को अपना नेता घोषित कर ही दिया। लोकसभा चुनाव हारने के बाद और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबियत खराब होने के बाद ही ये ऐलान हो जाना चाहे था। लेकिन, कुछ पार्टी की आतंरिक खराब हालत और कुछ अटल बिहारी वाजपेयी की आजीवन भाजपा का सबसे बड़ा नेता बने रहने की चाहत। इन दोनों बातों ने मिलकर आडवाणी की ताजपोशी पर बार-बार ब्रेक लगाया। उस पर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी के बयान की वजह से संघ के बड़े नेताओं की नाराजगी कुछ बची रह गई थी।

फिर जरूरत (वजह) क्या थी बिना किसी मौके के आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की। अभी लोकसभा के चुनाव तो हो नहीं रहे थे। गुजरात के चुनाव चल रहे हैं और गुजरात में जिस तरह से मोदी की माया में ही पूरे राज्य में बीजेपी का चुनाव प्रचार चल रहा है। सहज ही लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी मोदी के बढ़ते प्रभाव से जुड़ जाता है। और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे बड़ी ही आसानी से जोड़ दिया कि मोदी केंद्र की राजनीति में प्रभावी न हो पाएं इसके लिए गुजरात चुनाव के परिणाम आने से पहले ही आडवाणी की उम्मीदवार पक्की कर दी गई। लेकिन, अगर आडवाणी की उम्मीदवारी के ऐलान के समय पार्टी कार्यालय के दृश्य याद करें तो, आसानी से समझ में आ जाता है कि मोदी कहीं से भी नंबर एक की कुर्सी के लिए आडवाणी को चुनौती देने की हालत में नहीं थे।

दरअसल लाल कृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पक्की करने के पीछे असली खेल भाजपा में नंबर दो की लड़ाई में भिड़े नेताओं ने किया। मुस्कुराते हुए राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र पढ़कर सुनाया। जसवंत सिंह हमेशा की ही तरह आडवाणी के पीछे खड़े थे। अरुण जेटली काले डिजाइनर कुर्ते में चमकते चेहरे के साथ नजर आ रहे थे। लेकिन, इस पूरे आयोजन में सबसे असहज और खुद को सहज बनाने की कोशिश में दिख रहे थे मुरली मनोहर जोशी। राजनाथ के ऐलान के बाद जोशी ने आडवाणी को मिठाई खिलाई, गुलदस्ता भी दिया।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को भीतर से जानने वाले ये अच्छी तरह जानते हैं कि नंबर दो की कुर्सी को छूने भर के लिए मुरली मनोहर जोशी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा में एक चर्चित किस्से से आडवाणी-जोशी के बीच चल रहे शीत युद्ध को आसानी से समझा जा सकता है। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार जोशी के संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से कुछ नाराज लोग आडवाणी के पास मुरली मनोहर की शिकायत करने पहुंचे तो, आडवाणी ने उन्हें जवाब दिया कि इलाहाबाद भाजपा के नक्शे में शामिल नहीं है। ये बात कितनी सही है ये तो पता नहीं। लेकिन, दोनों नेताओं के बीच रस्साकशी लगातार चलती रही थी। आडवाणी स्वाभाविक तौर पर अटल बिहारी के बाद कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य नेता थे तो, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के सर संघचालक रहते जोशी ने संघ के दबाव में नंबर दो का दावा बार-बार पेश करने की कोशिश की।

जोशी जब अध्यक्ष बने तो, उसके बाद के चुनावों में एक पोस्टर पूरे देश भर में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से छपा हुआ पहुंचा था। इसमें बीच में अटल बिहारी की थोड़ी बड़ी फोटो के अगल-बगल जोशी और आडवाणी की एक बराबर की फोटो लगी थी और नारा भारत मां की तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर। अब तो ये नारा भाजपा कार्यकर्ताओं को याद भी नहीं होगा।

खैर, आडवाणी ने पूरे देश में अपने तैयार किए कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल बिछाया कि दूसरे सभी नेता गायब से हो गए। उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सिर्फ आडवाणी के कार्यकर्ता ही पार्टी में अच्छे नेता के तौर पर स्वीकार्य दिखने लगे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, दिल्ली में मदन लाल खुराना, विजय गोयल, वी के मल्होत्रा, बिहार में सुशील मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा, राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत, महाराष्ट्र में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे, उत्तरांचल में भगत सिंह कोश्यारी, कर्नाटक में अनंत कुमार, गुजरात में केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा और नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में गोविंदाचार्य, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे नेता थे जो, देश भर में भाजपा की पहचान थे। और, इन सभी नेताओं की निष्ठा कमोबेश आडवाणी के प्रति ही मानी जाती थी।

कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं की तनी लंबी फौज होने के बाद आडवाणी कभी भी ‘मास अपील’ (इस अपील ने भी भारतीय राजनीति में बहुत भला-बुरा किया है) का नेता बनने में वाजपेयी को पीछे नहीं छोड़ पाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद आडवाणी का ग्राफ बहुत तेजी से ऊपर गया। लेकिन, इसके साथ ही देश में हिंदूत्व के उभार के साथ एक आक्रामक तेवर वाले नेताओं की भी फौज खड़ी हो गई। साथ ही आडवाणी के ही खेमे के नेताओं में आपस में ठन गई। बीच बचाव करते-करते माहौल बिगड़ चुका था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे जनाधार वाले नेता कल्याण सिंह ने पार्टी से किनारा कर लिया। गोविंदाचार्य को अध्ययन अवकाश पर जाना पड़ा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह से दस साल बाद सत्ता छीनने वाली तेज तर्रार नेता उमा भारती मुख्यमंत्री तो बनीं लेकिन, जल्द ही उनके तेवर पार्टी के लिए मुसीबत बन गए। मदन लाल खुराना आडवाणी को ही पार्टी में होने वाले सारे गलत कामों के लिए दोषी ठहराने लगे। प्रमोद महाजन का दुखद निधन हो गया जो, भाजपा के साथ देश की राजनीति के लिए भी एक बड़ा झटका था। साहिब सिंह वर्मा का सड़क हादसे में निधन हो गया। इस बीच ही आडवाणी को मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नजर आने लगे। और, आडवाणी संघ सहित भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के भी निशाने पर आ गए।

राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आडवाणी ने खुद को पार्टी की सक्रिय भूमिका से अलग कर लिया। और, सच्चाई ये थी कि उनके अपने खड़े किए नेता अब प्रदेशों में या फिर देश की राजनीति में अब उनके साथ थे ही नहीं। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में उत्तरांचल और पंजाब में भाजपा सत्ता में आई लेकिन, उत्तर प्रदेश में मिली जबरदस्त पटखनी ने पूरे देश में भाजपा का माहौल खराब कर दिया। संघ, विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी ने रहा सहा काम भी बिगाड़ दिया।

कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी जो, खुद को एक परिवार की तरह पेश करती है। एक ऐसा परिवार बनकर रह गई जिसमें घर का हर सदस्य अपने हिसाब से चलना चाह रहा था और घर के मुखिया, दूसरे सदस्यों को कुछ भी कहने-सुनने लायक नहीं बचे थे। संघ के बड़े नेता मोहन भागवत फिर से इस कोशिश में जुट गए कि किसी तरह भाजपा को उसका खोया आधार वापस मिल सके। भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही आडवाणी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था लेकिन, अटल बिहारी बीच में ही बोल पड़े कि वो फिर लौट रहे हैं।

आडवाणी भी ये नहीं चाहते थे कि आज की तारीख में देश के सबसे स्वीकार्य नेता की असहमति के साथ वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनें। सारी मुहिम फिर स शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस तरह से भाजपा का संगठन जिस तेजी से खत्म हुआ है उसमें ये जरूरत महसूस होने लगी कि पार्टी को किसी एक नेता के पीछे चलना ही होगा। गुजरात में मोदी ने जिस तरह से संगठन के तंत्र को तहस-नहस किया है। और, अपना खुद का तंत्र बनाकर केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा, सुरेश मेहता और दूसरे भाजपा के दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया है। उससे भी पार्टी और संघ को आडवाणी को नेता बनाने की जरूरत महसूस हुई।

संघ ने आडवाणी की उम्मीदवारी पक्की करने से पहले आडवाणी को मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को साथ लेकर चलने का पक्का वादा ले लिया। गुजरात में मोदी के प्रकोप से डरे भाजपा के दूसरी पांत के नेता भी आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का निर्विवाद उम्मीदवार मानने के लिए राजी हो गए। नरेंद्र मोदी तो कभी भी इस हालत में नहीं रहे कि दिल्ली की राजनीति में वो आडवाणी के कद के आसपास भी फटकते। वैसे भी गुजरात के बाहर मोदी का साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का फॉर्मूला तो काम करने से रहा। लेकिन, आडवाणी के लिए राह बहुत मुश्किल है। गोविंदाचार्य और उमा भारती जैसे कार्यकर्ताओं के प्रिय नेता पार्टी में आने जरूरी हैं। कल्याण सिंह में अब वो तेवर नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश में दूसरा कोई ऐसा नेता बन नहीं पाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ तालमेल बिठाना मुंडे के लिए मुश्किल हो रहा है। और, अब शायद ही आडवाणी में इतनी ताकत बची होगी कि वो फिर से सफल रथयात्री बन सकें जो, अपनी मंजिल तक पहुंच सके। लेकिन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अजब-गजब बयान से इतना तो साफ है कि भाजपा का तीर निशाने पर लगा है।