Tuesday, May 25, 2010

मीडिया का अछूत गांधी

इस गांधी की चर्चा मीडिया में अकसर ना के बराबर होती है और अगर होती भी है तो, सिर्फ और सिर्फ गलत वजहों से। मीडिया और इस गांधी की रिश्ता कुछ अजीब सा है। न तो मीडिया इस गांधी को पसंद करता है न ये गांधी मीडिया को पसंद करता है। इस गांधी के प्रति मीडिया दुराग्रह रखता है। किस कदर इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के पहले परिवार से निकले इस गांधी के भाई राहुल गांधी के श्रीमुख से कुछ भी अच्छा बुरा निकले तो, मीडिया उसे लपक लेता है और अच्छा-बुरा कुछ भी करके चलाता रहता है। जब ये दूसरा गांधी यानी वरुण गांधी कहता है कि उत्तर प्रदेश में 2012 में बीजेपी सत्ता में आएगी और हम सत्ता में आए तो, मायावती की मूर्तियां हटवाकर राम की मूर्तियां लगवाएंगे तो, किसी भी न्यूज चैनल पर ये टिकर यानी नीचे चलने वाली खबर की पट्टी से ज्यादा की जगह नहीं पाती है लेकिन, जब मायावती के खिलाफ देश के पहले परिवार का स्वाभाविक वारिस यानी राहुल गांधी मायावती के खिलाफ कुछ भी बोलता है या कुछ नहीं भी बोलता है तो, भी सभी न्यूज चैनलों पर बड़ी खबर बन जाती है यहां तक कि हेडलाइंस भी होती है।
वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।

और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।

ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।

वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।

वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।

ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।