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Wednesday, July 2, 2008

आज कांग्रेस-सपा के साथ आने का ऐलान हो जाएगा

आज शाम तक समाजवादी पार्टी की ओर अमर सिंह परमाणु समझौते पर यूपीए सरकार को समर्थन का ऐलान कर सकते हैं। ये अलग बात है कि इस सपा में ही दो फाड़ होने की नौबत आ गई है। सपा सांसद कह रहे हैं कि उनके साथ 10 सांसद हैं। लेकिन, लगता यही है कि ये ड्रामा हो सकता है जिससे मुनव्वर मुस्लिम वोटों को बसपा के पक्ष में बहकने से रोक सकें। या फिर मुनव्वर को ये लगने लगा हो कि लोकसभा चुनाव में सपा की बजाए बसपा के टिकट पर आसानी से संसद में पहुंचा जा सकता है।

खैर, जो कुछ भी हो कांग्रेस से दोस्ती के लिए समाजवादी पार्टी अब अपनी राजनीतिक छतरी लेफ्ट को भी दरकिनार के मूड में आ गई है। लेकिन, समाजवादी पार्टी को ये अहसास है कि बीजेप-बीएसपी गठजोड़ के मजबूत होने की स्थिति में यही अकेली छतरी होगी जिसके नीचे आकर सत्ता से दूर रहने के नुकसान थोड़े कम किए जा सकेंगे। और, तथाकथित सांप्रदायिकता के खिलाफ एक गठजोड़ बना सकेंगे। यही वजह है कि अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव लेफ्ट को मनाकर-बताकर कांग्रेस को समर्थन देना चाहते हैं।

दरअसल मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह यूपी की सत्ता से बाहर होने और मायावती के मजबूती से सत्ता हासिल करने के बाद जिस हालात से गुजर रहे हैं। उसमें उन्हें कांग्रेस के साथ जाना फायदे का सौदा लग रहा है। वैसे इसके लिए चार-छे महीने के लिए ही सही सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी भी मिलेगी। मैंने महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन के समय ही ये लिखा था कि किस तरह से यूपी में हाशिए पर पहुंची कांग्रेस और सपा एक दूसरे के नजदीक आ रहे हैं। और, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के लिए मायावती के साथ जाने में फायदा देख रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही है कि भले ही भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को मायावती के साथ से केंद्र में सत्ता चलाने का मौका मिल जाए लेकिन, यूपी में भाजपा का और नुकसान ही होना है।

लेकिन, मुलायम और सोनिया का साथ दोनों के लिए फायदे का सौदा है। यूपी में भी केंद्र की राजनीति के लिए भी। अभी उत्तर प्रदेश में जो हालात हैं वो, कमोबेश विधानसभा चुनाव जैसे ही हैं। बीएसपी के सत्ता में रहने के बावजूद और रोज उजागर होते बसपा नेताओं-विधायकों मंत्रियों के कुकर्मों के बावजूद मायावती को कोई नुकसान होती नहीं दिख रहा। समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर और भाजपा तीसरे नंबर पर है। कांग्रेस का कोई पुरसाहाल नहीं है। और, ये साफ है कि भाजपा और बसपा अंदर गठजोड़ भले ही कर लें साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकते। जबकि, सोनिया और मुलायम के पास ये विकल्प भी है। और, सच्चाई भी यही है कि ये दोनों साथ मिलकर लड़ें तो, लोकसभा की 10-15 सीटों पर समीकरण बदल सकते हैं।

इसकी वजह भी साफ है- अभी भाजपा का परंपरागत ब्राह्मण मतदाता- ये सोचकर कि मायावती का रहना मुलायम के रहने से तो, बेहतर है- बहनजी को वोट करने का मन बना चुका है। जहां ब्राह्मण प्रत्याशी बसपा से हैं वहां तो कोई संदेह ही नहीं है। और, भाजपा के खिलाफ वोट करने वाला एक बड़ा वर्ग भी- ये सोचकर कि सपा को वोट करेंगे तो, रिएक्शन में एंटी वोट भाजपा के साथ एकजुट होंगे और वो मजबूत होगी- बसपा को वोट करने के लिए तैयार है। अब अगर कांग्रेस-सपा एक साथ आते हैं तो, कम से कम एंटी भाजपा सारे वोट इस गठजोड़ के साथ आ सकते हैं। मुस्लिमों का तो, नब्बे परसेंट वोट मायावती का साथ छोड़ सकता है अगर उसे ये तथाकथित सेक्युलर गठजोड़ प्रदेश में मजबूत होता दिखे।

और, जिस तरह से नंदीग्राम के पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट कैडर की अंदरूनी लड़ाई से दोनों राज्यों में वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं। इससे साफ दिख रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में लेफ्ट पर्टियों की सीटें 59 से कम ही होंगी, ज्यादा तो नहीं ही होंगी। कांग्रेस पर भी एंटी इनकंबेंन्सी और महंगाई बुरा असर डाल रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश से ज्यादा सीटें लाने पर सपा-कांग्रेस गठजोड़ यूपीए सरकार के लिए रास्ता आसान कर सकता है। क्योंकि, एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह ये बयान दिया है कि अफजल गुरु, अमरनाथ श्राइन बोर्ड से वापस ली गई जमीन का मुद्दा और आतंकवाद, आने वाले लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनेगा। उससे साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को फायदा मिल रहा है। इसलिए कांग्रेस-सपा गठजोड़ और बाद मे लेफ्ट का बाहर से समर्थन ही सोनिया के लिए बेहतर रास्ता दिख रहा है।