Tuesday, November 27, 2007

देश भर में फैलने की तैयारी में उत्तर प्रदेश की ‘माया’

मायावती अब दिल्ली पर अपना कब्जा मजबूत करना चाहती हैं। मायावती इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के लिए सत्ता पाने में तुरुप के इक्के जैसा चलने वाले सतीश चंद्र मिश्रा अपने यूपी फॉर्मूले का इस्तेमाल देश के दूसरे राज्यों में भी करना चाहते हैं। जिस तरह की रणनीति सतीश मिश्रा तैयार कर रहे हैं उससे ये साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव में कई राज्यों में स्थापित पार्टियों की हाथी की दहाड़ सुनाई देगी।

कार्यकार्ता और वोटबैंक के लिहाज से उर्वर महाराष्ट्र में मायावती ने 25 नवंबर को एक बड़ी रैली कर दी है। महाराष्ट्र मायावती की योजना में सबसे ऊपर है। देश की राजधानी दिल्ली भी मायावती की योजना में ठीक से फिट बैठ रही है। कांग्रेस और बीजेपी के लिए चिंता की बात ये है कि पिछले नगर निगम चुनावों में दिल्ली में बसपा के 17 सभासद चुनकर टाउनहॉल पहुंच गए हैं। दिल्ली में दलित वोट 19 प्रतिशत से कुछ ज्यादा हैं। और, उत्तर प्रदेश से सटे होने की वजह से यहां के बदलाव की धमक वहां खूब सुनाई दे रही है।

बसपा के संस्थापक कांशीराम की जन्मभूमि पंजाब मायावती के लिए अच्छी संभावना वाला राज्य बन सकता है। मायावती ने महाराष्ट्र से पहले यहां भी एक सफल रैली की। 1984 में जब देश भर में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की बयार बह रही थी तो, बसपा पहली बार संसद में पहुंची थी। पंजाब ऐसा राज्य है जहां देश की सबसे ज्यादा दलित आबादी (28.31 प्रतिशत) रहती है।

पंजाब के बाद देश में सबसे ज्यादा दलित (25.34 प्रतिशत) हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। यही वजह है कि हिमाचल में बसपा ने सभी 68 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। अब इसे मायावती की अति ही कहेंगे कि मायावती ने कांगड़ा में एक विशाल रैली में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी तय कर दिया। इस राज्य में अब तक मायावती को कोई बड़ी सफलता भले न मिली हो। लेकिन, विधानसभा चुनावों में तैयार जमीन लोकसभा चुनावों में मदद दे सकती है।

दिल्ली से ही सटा हरियाणा एक और राज्य है जिस पर बहनजी की नजर है। 19.75 प्रतिशत दलितों का होना भी मायावती को बल देता है। इस राज्य में 1998 में बसपा को एक लोकसभा सीट भी मिल चुकी है। हरियाणा में भी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की बड़ी संख्या है। खासकर फरीदाबाद, सोनीपत और पानीपत में।

उत्तर प्रदेश से सटे मध्य प्रदेश में तो मायावती अच्छी स्थिति के बाद पार्टी के कद्दावर नेता फूल सिंह बरैया के पार्टी छोड़ने से फिर शून्य पर पहुंच गई है। लेकिन, 15 प्रतिशत के करीब दलितों का वोटबैंक किसी कांग्रेस-बीजेपी के अलावा किसी एक दलित नेता का विकल्प मिलने पर फिर से जिंदा हो सकता है। मध्य प्रदेश में बसपा को 1996 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें (8.7 प्रतिशत) मिली थीं। 1998 में तो 11 विधायक बसपा के थे। फिलहाल मध्य प्रदेश में मायावती को बसपा का झंडा उठाने के लिए कोई दमदार नेता नहीं मिल रहा है। मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में भी मायावती अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रही हैं।

इसके अलावा दक्षिण भारत में तमिलनाडु है जो, देश के राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका सकता है। ये अकेला राज्य है जहां मायावती को सर्वजन हिताय का नारा ओढ़ने (उत्तर प्रदेश के फॉर्मूले को इस्तेमाल करने) की जरूरत नहीं है। ये वो राज्य है जो, स्वाभाविक तौर पर दलित आंदोलन की जमीन है। पेरियार ने इसी जमीन पर ब्राह्मणवाद (सतीश चंद्र मिश्रा सुन रहे हैं ना) के खिलाफ प्रभावी आंदोलन खड़ा किया था। लेकिन, मायावती की मुश्किल इस राज्य में ये है कि 19 प्रतिशत से ज्यादा का दलित वोट अब तक करुणानिधि को अंधभाव से नेता मानता रहा हैं। और, उत्तर भारत से एकदम अलग शैली की राजनीति भी मायावती की फजीहत करा सकती है। लेकिन, मायावती तैयार हैं। बसपा का पहला राज्य कार्यालय चेन्नई में खुल चुका है। जिला स्तर पर भी समितियां बनाई जा रही हैं। 30 दिसंबर को चेन्नई में रैली कर मायावती भारत के दक्षिण दुर्ग में प्रवेश करने की पूरी कोशिश करेंगी।

मायावती जिस तरह से बदली हैं। उसे देखकर लगता है कि मायावती भारतीय राजनीति में बड़े और लंबी रेस के खिलाड़ी की तरह मजबूत हो रही हैं। लेकिन, मायावती की राजनीति की नींव ही जिस जातिगत समीकरण के आधार पर बनी है उससे, कभी-कभी संदेह होता है। साथ ही ये भी कि बसपा अकेली ऐसी पार्टी है जिसकी विदेश, आर्थिक, कूटनीतिक और रक्षा मसलों पर अब तक कोई राय ही नहीं है। उद्योगपति अभी भी मैडम मायावती से मिलने में हिचकते हैं। ये कुछ ऐसी कमियां हैं जो, मायावती को देश का नेता बनने से रोक सकती हैं।

1 comment:

संजय शर्मा said...

तिलक ,तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार !!
जैसे नारों को अबतक उत्तर प्रदेश के तिलक [सतीश मिश्रा } पचा पाये .क्या पता देश के तराजू और तलवार भी तलवे के निचे आ जाए तो दिल्ली दूर नही कही जा सकती / फिलहाल ५ साल अपने ही प्रदेश मे तिलक लगाए
रखे / राजनीतिशास्त्र कभी पढ़ा नही . अगर अनुभव को लिया जाय . पंडित से दलित का हित सधता है न की दलित से दलित का , पंडित से पंडित का . हम चाहे कितने भी बड़े योद्धा हो प्रकृति से नही लड़ सकते . अवसरवादिता राजनीति को चाट पोंछ कर समाप्त कर गई है.
गरीब ,दलित की राजनीति का ढकोसला करने वाले कम्युनिस्ट क्यों असफल रहे दलित को दल दल से निकालने मे
या दलितों का दल बनाने मे . माया की माया मे फंसे दलित किसी आशा के साथ हैं तो उनका भ्रम टूटते देर नही होगी . हाँ अगर इस संतोष के साथ रहना है की एक दलित प्रदेश प्रमुख है तो बात दूसरी हो जाती है .
जैसे यादव समुदाय मुलायम को इस सीट पर बैठे देख गुदगुदाते रहता था भले ही परम्परा स्वरुप दूध का चार
ड्राम साइकिल मे बधे हो.